Book Title: Samaysara Anushilan Part 02
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 209
________________ समयसार अनुशीलन 400 एक कहे ना दृश्य दूसरा कहे दृश्य ना, किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है। पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं, उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥ ८७॥ एक कहे ना वेद्य दूसरा कहे वेद्य है, किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है । पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं, उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥ ८८॥ एक कहे ना भात दूसरा कहे भात है, किन्तु यह तो उभयनयों का पक्षपात है। पक्षपात से रहित तत्त्ववेदी जो जन हैं, - उनको तो यह जीव सदा चैतन्यरूप है ॥ ८९॥ ( हरिगीत ) उठ रहा जिसमें अनन्ते विकल्पों का जाल है । वह वृहद् नयपक्षकक्षा विकट है विकराल है ॥ उल्लंघन कर उसे बुध अनुभूतिमय निजभाव को। हो प्राप्त अन्तर्बाह्य से समरसी एक स्वभाव को ॥९० ॥ (दोहा) इन्द्रजाल से स्फुरें, सब विकल्प के पुंज । जो क्षणभर में लय करे, मैं हूँ वह चित्पुंज ॥ ९१॥ ( रोला ) मैं हूँ वह चित्पुंज कि भावाभावभावमय । परमारथ से एक सदा अविचल स्वभावमय ॥ कर्मजनित यह बंधपद्धति करूँ पार मैं । नित अनुभव यह करूँ कि चिन्मय समयसार मैं ॥९२॥ ( हरिगीत ) यह पुण्य पुरुष पुराण सब नयपक्ष बिन भगवान है । यह अचल है अविकल्प है बस यही दर्शन ज्ञान है ॥ निभृतजनों का स्वाद्य है अर जो समय का सार है । जो भी हो वह एक ही अनुभूति का आधार है ॥९३॥

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