Book Title: Samaysara Anushilan Part 02
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 211
________________ समयसार अनुशीलन 402 तब कर्म कर्म नहीं कर्ता कर्ता न रहा, ज्ञान ज्ञानरूप हुआ आनन्द अपार से । और पुद्गलमयी कर्म कर्मरूप हुआ, ज्ञानी पार हुए भवसागर अपार से ॥ ९९॥ (हरिगीत ) शुभ अर अशुभ के भेद से जो दोपने को प्राप्त हो । वह कर्म भी जिसके उदय से एकता को प्राप्त हो । जब मोहरज का नाश कर सम्यक् सहित वह स्वयं ही। जग में उदय को प्राप्त हो वह सुधानिर्झर ज्ञान ही ॥१०॥ (रोला ) दोनों जन्मे एक साथ शूद्रा के घर में। एक पला बामन के घर दूजा निज घर में। एक छुए ना मद्य ब्राह्मणत्वाभिमान से। दूजा डूबा रहे उसी में शूद्रभाव से। जातिभेद के भ्रम से ही यह अन्तर आया। इस कारण अज्ञानी ने पहिचान न पाया। पुण्य-पाप भी कर्म जाति के जुड़वा भाई। दोनों ही हैं हेय मुक्ति मारग में भाई ।। १०१॥ अरे पुण्य अर पाप कर्म का हेतु एक है। आश्रय अनुभव अर स्वभाव भी सदा एक है। अतः कर्म को एक मानना ही अभीष्ट है। भले-बुरे का भेद जानना ठीक नहीं है ॥१०२॥ ( दोहा ) जिनवाणी का मर्म यह बंध करें सब कर्म । मुक्तिहेतु बस एक ही आत्मज्ञानमय धर्म ॥१०३॥ (रोला ) सभी शुभाशुभभावों के निषेध होने से । अशरण होंगे नहीं रमेंगे निज स्वभाव में ॥ अरे मनीश्वर तो निशदिन निज में ही रहते । निजानन्द के परमामृत में ही नित रमते ॥१०४॥

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