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कलश पद्यानुवाद
ज्ञानरूप ध्रुव अचल आतमा का ही अनुभव । मोक्षरूप है स्वयं अतः वह मोक्षहेतु है ॥ शेष भाव सब बंधरूप हैं बंधहेतु हैं । इसीलिए तो अनुभव करने का विधान है ॥१०५॥
( दोहा) ज्ञानभाव का परिणमन ज्ञानभावमय होय । एकद्रव्यस्वभाव यह हेतु मुक्ति का होय ॥ १०६॥ कर्मभाव का परिणमन ज्ञानरूप ना होय । द्रव्यान्तरस्वभाव यह इससे मुकति न होय ॥ १०७।। बंधस्वरूपी कर्म यह शिवमग रोकनहार । इसीलिए अध्यात्म में है निषिद्ध शतवार ॥ १०८॥
( हरिगीत ) त्याज्य ही हैं जब मुमुक्षु के लिए सब कर्म ये । तब पुण्य एवं पाप की यह बात करनी किसलिए । निज आतमा के लक्ष्य से जब परिणमन हो जायगा । निष्कर्म में ही रस जगे तब ज्ञान दौड़ा आयगा ॥१०९॥ यह कर्मविरति जबतलक ना पूर्णता को प्राप्त हो । हाँ, तबतलक यह कर्मधारा ज्ञानधारा साथ हो ॥ अवरोध इसमें हैं नहीं पर कर्मधारा बंधमय । मुक्तिमारग एक ही हैं, ज्ञानधारा मुक्तिमय ॥११०॥
(हरिगीत ) कर्मनय के पक्षपाती ज्ञान से अनभिज्ञ हों। ज्ञाननय के पक्षपाती आलसी स्वच्छंद हों ।। जो ज्ञानमय हो परिणमित परमाद के वश में न हों। कर्म विरहित जीव वे संसार-सागर पार हों ॥१११॥ जग शुभ अशुभ में भेद माने मोह मदिरापान से । पर भेद इनमें हैं नहीं जाना है सम्यग्ज्ञान से ॥ यह ज्ञानज्योति तमविरोधी खेले केवलज्ञान से । जयवंत हो इस जगत में जगमगै आतमज्ञान से ॥११२॥