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कलश पद्यानुवाद
निज औघ से च्युत जिसतरह जल ढालवाले मार्ग से । बलपूर्वक यदि मोड़ दें तो आ मिले निज औघ से ॥ उस ही तरह यदि मोड़ दें बलपूर्वक निजभाव को । निजभाव से च्युत आत्मा निजभाव में ही आ मिले ॥ ९४॥
(रोला ) है विकल्प ही कर्म विकल्पक कर्ता होवे । जो विकल्प को करे वही तो कर्ता होवे ॥ नित अज्ञानी जीव विकल्पों में ही होवे । इस विधि कर्ताकर्मभाव का नाश न होवे ॥ ९५॥ जो करता है वह केवल कर्ता ही होवे । जो जाने बस वह केवल ज्ञाता ही होवे ॥ जो करता वह नहीं जानता कुछ भी भाई । जो जाने वह करे नहीं कुछ भी हे भाई ॥१६॥ करने रूप क्रिया में जानना भासित ना हो । जानन रूप क्रिया में करना भासित ना हो ॥ इसीलिए तो जानन-करना भिन्न-भिन्न हैं । इसीलिए तो ज्ञाता-कर्ता भिन्न-भिन्न हैं ॥९७॥
( हरिगीत ) कर्म में कर्ता नहीं अर कर्म कर्ता में नहीं। इसलिए कर्ताकर्म की थिति भी कभी बनती नहीं ॥ कर्म में है कर्म ज्ञाता में रहा ज्ञाता सदा । साफ है यह बात फिर भी मोह है क्यों नाचता ? ॥९८॥
पुण्यपापाधिकार
( सवैया इकतीसा ) जगमग जगमग जली ज्ञानज्योति जब,
अति गंभीर चित् शक्तियों के भार से । अद्भुत अनुपम अचल अभेद ज्योति,
व्यक्त धीर-वीर निर्मल आर-पार से ॥