Book Title: Samaysara Anushilan Part 02
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 202
________________ 393 गाथा पद्यानुवाद विरक्त शिव रमणी वरें अनुरक्त बाँधे कर्म को । जिनदेव का उपदेश यह मत कर्म में अनुरक्त हो ॥ १५०॥ परमार्थ है है ज्ञानमय है समय शुध मुनि केवली । इसमें रहें थिर अचल जो निर्वाण पावें वे मुनी ॥१५१॥ परमार्थ से हों दूर पर तप करें व्रत धारण करें । सब बालतप हैं बालव्रत वृषभादि सब जिनवर कहें ॥ १५२॥ व्रत नियम सब धारण करें तप शील भी पालन करें । पर दूर हों परमार्थ से ना मुक्ति की प्राप्ती करें ॥ १५३॥ परमार्थ से हैं बाह्य वे जो मोक्षमग नहीं जानते । अज्ञान से भवगमन-कारण पुण्य को हैं चाहते ॥ १५४॥ जीवादि का श्रद्धान सम्यक् ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । रागादि का परिहार चारित - यही मुक्तीमार्ग है ॥ १५५॥ विद्वानगण भूतार्थ तज वर्तन करें व्यवहार में । पर कर्मक्षय तो कहा है परमार्थ-आश्रित संत के ॥१५६॥ ज्यों श्वेतपन हो नष्ट पट का मैल के संयोग से । सम्यक्त्व भी त्यों नष्ट हो मिथ्यात्व मल के लेप से ॥१५७॥ ज्यों श्वेतपन हो नष्ट पट का मैल के संयोग से । सद्ज्ञान भी त्यों नष्ट हो अज्ञान मल के लेप से ॥ १५८॥ ज्यों श्वेतपन हो नष्ट पट का मैल के संयोग से । चारित्र भी त्यों नष्ट होय कषायमल के लेप से ॥ १५९॥ सर्वदर्शी सर्वज्ञानी कर्मरज आछन्न हो । संसार को सम्प्राप्त कर सबको न जाने सर्वतः ॥१६०॥ सम्यक्त्व प्रतिबन्धक करम मिथ्यात्व जिनवर ने कहा । उसके उदय से जीव मिथ्यादृष्टि होता है सदा ॥ १६१॥ सद्ज्ञान प्रतिबन्धक करम अज्ञान जिनवर ने कहा । उसके उदय से जीव अज्ञानी बने - यह जानना ॥१६२॥ चारित्र प्रतिबन्धक करम जिन ने कषायों को कहा । उसके उदय से जीव चारित्रहीन हो - यह जानना ॥१६३॥

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