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समयसार अनुशीलन
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यदि कर्ममय परिणाम पुद्गल द्रव्य का जिय साथ हो । तो जीव भी जड़कर्मवत् कर्मत्व को ही प्राप्त हो ॥ १३७॥ किन्तु जब जियभाव बिन ही एक पुद्गल द्रव्य का । यह कर्ममय परिणाम है तो जीव जड़मय क्यों बने ? ॥ १३८॥ इस जीव के रागादि पुद्गलकर्म में भी हों यदी । तो जीववत जड़कर्म भी रागादिमय हो जावेंगे ॥१३९॥ किन्तु जब जड़कर्म बिन ही जीव के रागादि हों । तब कर्मजड़ पुद्गलमयी रागादिमय कैसे बनें ? ॥ १४०॥ कर्म से आबद्ध जिय यह कथन है व्यवहार का। पर कर्म से ना बद्ध जिय यह कथन है परमार्थ का ॥ १४१॥ अबद्ध है या बद्ध है जिय यह सभी नयपक्ष हैं । नयपक्ष से अतिक्रान्त जो वह ही समय का सार है ॥ १४२॥ दोनों नयों को जानते पर ना ग्रहे नयपक्ष जो । नयपक्ष से परिहीन पर निज समय से प्रतिबद्ध वे ॥१४३॥ विरहित सभी नयपक्ष से जो सो समय का सार है। है वही सम्यग्ज्ञान एवं वही समकित सार है ॥ १४४॥
पुण्यपापाधिकार सुशील हैं शुभ कर्म और अशुभ करम कुशील हैं । संसार के हैं हेतु वे कैसे कहें कि सुशील हैं ? ॥ १४५॥ ज्यों लोह बेड़ी बाँधती त्यों स्वर्ण की भी बाँधती । इस भाँति ही शुभ-अशुभ दोनों कर्म बेड़ी बाँधती ॥ १४६॥ दुःशील के संसर्ग से स्वाधीनता का नाश हो । दुःशील से संसर्ग एवं राग को तुम मत करो ॥ १४७॥ जगतजन जिसतरह कुत्सितशील जन को जानकर । उस पुरुष से संसर्ग एवं राग करना त्यागते ॥ १४८॥ बस उसतरह ही कर्मकुत्सित शील हैं - यह जानकर । निजभावरत जन कर्म से संसर्ग को हैं त्यागते ॥ १४९॥