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गाथा पद्यानुवाद
यदि परिणमावे कर्मजड़ क्रोधादि में इस जीव को । पर परिणमावे किसतरह वह अपरिणामी वस्तु को ॥ १२३ ॥ यदि स्वयं ही क्रोधादि में परिणमित हो यह आतमा । मिथ्या रही यह बात उसको परिणमावे कर्म जड़ ॥ १२४॥ क्रोधोपयोगी क्रोध है मानोपयोगी मान है । मायोपयोगी माया है लोभोपयोगी लोभ है ॥ १२५ ॥
अज्ञानमय ॥ १२६॥
सब ज्ञानमय ।
अज्ञानमय । अज्ञानमय ॥ १२९ ॥
जो भाव आतम करे वह उस कर्म का कर्ता बने । ज्ञानियों के ज्ञानमय अज्ञानि के अज्ञानमय हैं भाव इससे अज्ञ कर्ता बस ज्ञानमय हैं इसलिए ना विज्ञ कर्ता ज्ञानमय परिणाम से परिणाम हों बस इसलिए सद्ज्ञानियों के भाव हों सद्ज्ञानमय ॥ १२८॥ अज्ञानमय परिणाम से परिणाम हों बस इसलिए अज्ञानियों के भाव हों स्वर्णनिर्मित कुण्डलादि स्वर्णमय ही लोहनिर्मित कटक आदि लोहमय ही इस ही तरह अज्ञानियों के भाव हों अज्ञानमय । इस ही तरह सब भाव हों सद्ज्ञानियों के ज्ञानमय ॥ १३१ ॥ निजतत्त्व का अज्ञान ही बस उदय है अज्ञान का । निजतत्त्व का अश्रद्धान ही बस उदय है मिथ्यात्व का ॥ १३२॥ अविरमण का सद्भाव ही बस असंयम का उदय है । उपयोग की यह कलुषिता ही कषायों का उदय है ॥ १३३॥ शुभ अशुभ चेष्टा में तथा निवृत्ति में या प्रवृत्ति में । जो चित्त का उत्साह है वह ही उदय है इनके निमित्त के योग से जड़ वर्गणाएँ कर्म की । परिणमित हों ज्ञान - आवरणादि वसुविध कर्म में ॥ १३५ ॥ इसतरह वसुविध कर्म से आबद्ध जिय जब हो तभी । अज्ञानमय निजभाव का हो हेतु जिय जिनवर कही ॥ १३६ ॥
योग का ॥ १३४॥
कर्म का ।
कर्म का ॥ १२७ ॥
हों सदा ।
हों सदा ॥ १३० ॥