Book Title: Samaysara Anushilan Part 02
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 197
________________ समयसार अनुशीलन 388 आतम करे ना कर्मगुण ना कर्म आतमगुण करे । पर परस्पर परिणमन में दोनों परस्पर निमित हैं ॥ ८१॥ बस इसलिए यह आतमा निजभाव का कर्ता कहा । अन्य सब पुद्गलकरमकृत भाव का कर्ता नहीं ॥ ८२॥ हे भव्यजन ! तुम जान लो परमार्थ से यह आतमा । निजभाव को करता तथा निजभाव को ही भोगता ॥ ८३॥ अनेक विध पुद्गल करम को करे भोगे आतमा । व्यवहारनय का कथन है यह जान लो भव्यात्मा ॥ ८४॥ पुद्गल करम को करे भोगे जगत में यदि आतमा । द्विक्रिया अव्यतिरिक्त हों संमत न जो जिनधर्म में ॥ ८५॥ यदि आतमा जड़भाव चेतनभाव दोनों को करे । तो आतमा द्विक्रियावादी मिथ्यादृष्टि अवतरे ॥८६॥ मिथ्यात्व-अविरति-जोग-मोहाज्ञान और कषाय हैं । ये सभी जीवाजीव हैं ये सभी द्विविधप्रकार हैं ॥ ८७॥ मिथ्यात्व आदि अजीव जो वे सभी पुद्गल कर्म हैं । मिथ्यात्व आदि जीव हैं जो वे सभी उपयोग हैं ॥ ८८॥ मोहयुत उपयोग के परिणाम तीन अनादि से । जानों उन्हें मिथ्यात्व अविरतभाव अर अज्ञान ये ॥ ८९॥ यद्यपि उपयोग तो नित ही निरंजन शुद्ध है। जिसरूप परिणत हो त्रिविध वह उसी का कर्ता बने ॥९०॥ आतम करे जिस भाव को उस भाव का कर्ता बने । बस स्वयं ही उस समय पुद्गल कर्मभावे परिणमें ॥९१॥ पर को करे निजरूप जो पररूप जो निज को करे । अज्ञानमय वह आतमा पर करम का कर्ता बने ॥ ९२॥ पररूप ना निज को करे पर को करे निज रूप ना । अकर्ता रहे पर करम का सद्ज्ञानमय वह आतमा ॥ ९३॥ त्रिविध यह उपयोग जब 'मैं क्रोध हूँ' इम परिणमें । तब जीव उस उपयोगमय परिणाम का कर्ता बने ॥१४॥

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