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गाथा १६१-१६३
ज्ञाननय का पक्षपाती बातें तो बड़ी-बड़ी करता है; किन्तु जीवन में स्वच्छंदतया वर्तता है। एक जड़क्रिया में मग्न है, दूसरा स्वच्छन्दता के पोषण में।'
जिनको अन्तरंग में चैतन्यस्वभाव में एकाग्र होने की ओर झुकाव तो हुआ नहीं, केवल बाहर-बाहर से ज्ञान की बातें करते हैं, वे नियम से मिथ्यादृष्टि हैं। तथा जो स्वभाव में दृष्टि की एकाग्रता का विचार तो करते हैं; किन्तु जिन्होंने स्वरूप का प्रत्यक्ष आस्वाद नहीं किया, वे भी सम्यक्त्वसन्मुखमिथ्यादृष्टि हैं।
यहाँ दो प्रकार के जीव लिए हैं - एक शुभराग की क्रिया में धर्म माननेवाले और दूसरे ज्ञान की मात्र कोरी बातें करनेवाले। एक शुभराग को अनेक क्रियाओं में रुक करके मिथ्यात्वसहित होने से संसार में डूबते हैं तथा दूसरे पुरुषार्थरहित प्रमादी होकर विषय-कषाय में स्वछन्द वर्तते हुए संसार समुद्र में डूबेंगे। ___ यहाँ कहते हैं कि जो जीव ज्ञानरूप परिणमता हुआ कर्म नहीं करता, वह भवसमुद्र से तिर जाता है। ज्ञानी कर्म नहीं करता, इसका अर्थ यह है कि अनुभव के काल में ज्ञानी के बुद्धिपूर्वक राग नहीं होता तथा ज्ञानी को वर्तमान कमजोरी के कारण जो राग होता है, उसका भी वह कर्त्ता नहीं है। अर्थात् उसके अभिप्राय में पर के व राग के कर्तृत्वभाव का अभाव हो गया है। पर में व राग में अब उसके एकत्व व स्वामित्व नहीं रहा, इसकारण अब वह कर्म का कर्ता नहीं है। राग के वशीभूत होकर वह मिथ्यात्व में नहीं जाता। इसतरह निरंतर स्वरूप में उद्यमशील रहकर एवं प्रमादरहित होकर संसार से तिर जाता है। जो स्वरूप में झुकता है, उसमें लीन होता है तथा उसी में उद्यमवंत रहता है, प्रयत्नशील रहता है, वह मोक्षमार्गी है। तथा जो स्वरूप से विमुख है, वह मिथ्यादृष्टि है, संसार-सागर में डूबनेवाला है।"
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ १९३ २. वही, पृष्ठ १९४