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गाथा १४४
है; परन्तु पर के कारण या कर्म की बलजोरी के कारण नहीं हुआ है। दृष्टि की प्रधानता से राग को पुद्गल का परिणाम कहते हैं और उसी को यहां उदय की बलजोरी से होता है - ऐसा कहा है।
ज्ञानी को भी अस्थिरता का परिणमन है। परिणमन की अपेक्षा से उसको इतना कर्त्तापना भी है। प्रवचनसार में ४७ नयों के अधिकार में यह बात कही भी है। अस्थिरता के परिणाम का ज्ञानी कर्ता भी है और भोक्ता भी है; परन्तु दृष्टि की अपेक्षा से उसको शुद्धतारूप ही परिणमन है - ऐसा कहा जाता है; क्योंकि अशुद्धता के परिणाम की उसको रुचि नहीं है। ज्ञानी जानता है कि अपनी कमजोरी से राग परिणाम होता है और राग को भोगता भी है, पर वह उस राग परिणाम को करने लायक (कर्त्तव्य) और भोगने योग्य नहीं मानता, उनमें उपादेय बुद्धि नहीं होती।
ज्ञानी को निमित्त की बलजोरी अर्थात् पुरुषार्थ की कमी के कारण रागरूप परिणमन होने पर भी किंचित् फल होता है, कर्म की तीव्र स्थिति व अनुभाग नहीं पड़ता, अल्पस्थिति व अनुभाग पड़ता है और वह अल्पबन्ध संसार का कारण नहीं होता।
यदि कोई ऐसा मानता हो कि ज्ञानी के राग या दुःख है ही नहीं, तो यह मान्यता सही नहीं है। द्रव्यदृष्टिप्रकाश में निहालभाई ने जो यह कहा है कि ज्ञानी को शुभराग धधकती भट्टी जैसा लगता है, वह बात बिल्कुल सही है। चौथे, पाँचवें व छठे गुणस्थान में ज्ञानी को जितना राग है, वह दुःखरूपभाव है, दुःख के वेदनरूप है। यद्यपि अन्तर आत्मा में अकषायरूप आनन्द का प्रचुर वेदन है; परन्तु साथ में जितना राग है, उतना दुःख का वेदन भी है - ऐसा ज्ञान यथार्थ जानता है।
केवली भगवान को केवल परिपूर्ण ज्ञान का ही वेदन है और मिथ्यादृष्टि को केवल दुःख का ही वेदन है तथा समकिती को प्रचुर आनन्द एवं साथ में किञ्चित् दुःख का भी वेदन है; तथापि दृष्टि व दृष्टि के विषय की अपेक्षा