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समयसार अनुशीलन
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- इसप्रकार कर्म के शुभाशुभ भेद के पक्ष को गौण करके उसका निषेध किया है; क्योंकि यहाँ अभेदपक्ष प्रधान है और यदि अभेदपक्ष से देखा जाये तो कर्म एक ही है - दो नहीं।"
प्रश्न - यहाँ बंधमार्ग को केवल पुद्गलपरिणाममय कहा गया है; तो क्या आत्मा में उत्पन्न होनेवाले शुभाशुभभाव भी पुद्गलपरिणाममय हैं?
उत्तर - इस समस्या का समाधान स्वामीजी इसप्रकार करते हैं - ४१. "यहां कहते हैं कि मोक्ष का मार्ग केवल जीव के परिणाममय ही है। तात्पर्य यह है कि शुभाशुभभाव जीव के परिणाम नहीं, अर्थात् वे पुद्गल के परिणाम हैं, इसलिये कर्म का आश्रय केवल बंधमार्ग ही है।
जिस निर्मल रत्नत्रय को यहाँ समयसार में जीव का परिणाम कहा, उसे ही नियमसार में परद्रव्य कहा, सो वहाँ वह दूसरी अपेक्षा से कहा है। जैसे परद्रव्य में से जीव की नवीन पर्याय नहीं आती; उसीतरह मोक्षमार्ग की पर्याय में से नवीन पर्याय नहीं आती। नवीन पर्याय उत्पन्न होने का भंडार तो त्रिकाली द्रव्य है। वहाँ द्रव्य का आश्रय करवाने के प्रयोजन से त्रिकाल द्रव्य को स्वद्रव्य कहा और निश्चय मोक्षमार्ग के परिणाम को परद्रव्य कहा है। । यहां इस मोक्षमार्ग के परिणाम को जीव का कहा है और शुभाशुभ भावों
को पुद्गल में डाला है तथा तत्त्वार्थसूत्र के द्वितीय अध्याय के प्रथमसूत्र में शुभाशुभ भावों को जीव के स्व-तत्त्व कहे हैं - पांचों ही भावों को जीवतत्त्व कहा है। वहाँ यह अपेक्षा है कि शुभाशुभभाव जीव की पर्याय में ही होते हैं; इसलिये उन्हें जीवतत्त्व कहा है। वह व्यवहारनय, पर्यायनय का ग्रन्थ है न ? अतः उसमें व्यवहारनय से शुभाशुभ भावों को जीव का कहा है। जबकि यहाँ राग-द्वेषरूप शुभाशुभ परिणामों को अज्ञानमय होने से जीव के न कहकर पुगलमय परिणाम कहा है।
देखो आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव आचार्य श्री उमास्वामी के गुरु थे। गुरु शुभाशुभ भावों को पुद्गल का कहते हैं और शिष्य उन्हें जीवतत्त्व कहते हैं; तो क्या उनमें परस्पर मतभेद था?