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समयसार अनुशीलन
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अशुभ कर्म तो मोक्ष का कारण है ही नहीं, प्रत्युत बाधक ही है, इसलिये निषिद्ध ही है; परन्तु शुभकर्म भी कर्म सामान्य में आ जाता है, इसलिये वह भी बाधक ही है; इसलिए निषिद्ध ही है - ऐसा समझना चाहिए।"
अधिकार के समापन के अवसर पर आचार्य अमृतचन्द्र चार कलश लिखते हैं, जिनमें पहला इसप्रकार है -
( शार्दूलविक्रीडित ) संन्यस्तव्यमिदं समस्तमपि तत्कर्मैव मोक्षार्थिना । संन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुण्यस्य पापस्य वा । सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतु भवन् । नैष्कर्म्यप्रतिबद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति ॥१०९॥
( हरिगीत ) त्याज्य ही हैं जब मुमुक्षु के लिए सब कर्म ये । तब पुण्य एवं पाप की यह बात करनी किसलिए ॥ निज आतमा के लक्ष्य से जब परिणमन हो जायगा ।
निष्कर्म में ही रस जगे तब ज्ञान दौड़ा आयगा ॥१०९॥ मोक्षार्थियों के लिए समस्त ही कर्म त्याग करने योग्य हैं। जब यह सुनिश्चित है, तब फिर पुण्य और पाप कर्मों की चर्चा ही क्या करना; क्योंकि सभी कर्म त्याज्य होने से पुण्य भला और पाप बुरा यह बात ही कहाँ रह जाती है ? ऐसी स्थिति होने पर सम्यक्त्वादि निजस्वभाव के परिणमन से मोक्ष की कारणभूत निष्कर्म अवस्था का रसिक ज्ञान स्वयं ही दौड़ा चला आता है।
इस कलश में यह स्पष्ट किया गया है कि जब मोक्षार्थियों के लिये सभी कर्म त्याज्य हैं तो फिर इस चर्चा के लिये अवकाश ही कहाँ रह जाता है कि पुण्य भला है और पाप बुरा है। अतः इस चर्चा को विस्तार देने से कोई लाभ नहीं है। अरे भाई ! निजभगवान आत्मा के आश्रय से जब सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र प्रगट होते है, तब निष्कर्म अवस्था का रसिक ज्ञान सहज ही प्रगट हो जाता है, उसके लिए अलग से कोई पुरुषार्थ करने की अपेक्षा नहीं रहती।
उक्त सन्दर्भ में कलशटीका का निम्नांकित अंश द्रष्टव्य है -