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समयसार अनुशीलन
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देखो, यहाँ व्रत-नियम के विकल्पों और शुद्धस्वरूप के विचारों को भी कर्मबंध का कारण कहा है।
इस सन्दर्भ में स्वामीजी के विचार भी द्रष्टव्य हैं -
"भगवान केवली सम्पूर्ण अबन्ध हैं, मिथ्यादृष्टि को सम्पूर्ण बन्ध है और मोक्षमार्गी समकिती साधक जीव को कुछ बन्ध व कुछ अबंध है। समकिती धर्मी को कुछ कर्मों के बंध का अभाव है और कुछ कर्मबन्ध का सद्भाव है। दोनों एकसाथ होते हैं । द्रव्यस्वभाव के स्पर्श से साधक को सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप स्वभाव प्रगट होता है, वह ज्ञान ही अकेला मोक्ष का कारण है तथा जितना शुभाशुभभाव से परिणमन किया है, उतना बंधन का कारण है। ज्ञान स्वतः विमुक्त है, इसकारण ज्ञान ही अकेला मोक्ष का कारण है।
यही बात कलश टीकाकार राजमलजी ने ११०वें कलश की टीका में कही है - _ 'यहाँ कोई भ्रान्ति करेगा कि मिथ्यादृष्टि का यतिपना जो क्रियारूप है, वह बन्ध का कारण है। सम्यग्दृष्टि का शुभक्रियारूप यतिपना है, वह तो मोक्ष का कारण है; क्योंकि अनुभवज्ञान तथा दया-व्रत-तप-संयमरूप क्रिया - दोनों मिलकर ज्ञानावरणादि कर्म का क्षय करते हैं। - ऐसी प्रतीति कुछ अज्ञानी जीव करते हैं। ____ वहाँ समाधान यह है कि - जितनी शुभ-अशुभक्रिया, बहिर्जल्परूप विकल्प अथवा अन्तर्जल्परूप अथवा द्रव्यों के विचाररूप अथवा शुद्धस्वरूप का विचार इत्यादि समस्त कर्मबन्धन का कारण है। ऐसी क्रिया का ऐसा ही स्वभाव है। सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि का ऐसा भेद तो कहीं पर नहीं है, ऐसी करतूत से ऐसा बन्ध है। शुद्धस्वरूप परिणमन मात्र से मोक्ष है, जो कि एक ही काल में सम्यग्दृष्टि जीव को शुद्ध ज्ञान भी है, क्रियारूप परिणमन भी है; तो भी क्रियारूप जो परिणाम उससे केवल बंध होता है, कर्म का क्षय एक अंश भी नहीं होता; ऐसा वस्तु का स्वरूप है।
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ १८७