Book Title: Samaysara Anushilan Part 02
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 188
________________ 379 गाथा १६१-१६३ सहारा किसका ? उसी काल में शुद्धस्वरूप-अनुभवज्ञान भी है, उस ज्ञान से कर्मक्षय होता है, एक अंशमात्र भी बन्ध नहीं होता, वस्तु का ऐसा ही स्वरूप है।' ___ तथा वहीं पर आगे प्रश्न उठाकर कहा है कि - 'एक जीव में एक ही काल में ज्ञान व क्रिया दोनों ही किसप्रकार होते हैं ? समाधान यह है कि विरुद्ध तो कुछ नहीं है। कितने ही कालतक दोनों होते हैं, ऐसा ही वस्तु का स्वरूप है, परन्तु विरोध जैसा लगता है, तथापि सब अपने-अपने स्वरूप से हैं, कोई किसी का विरोध तो करते नहीं हैं।' इसप्रकार ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा अपने में एकाग्र होकर प्रवर्तमान जितनी ज्ञानधारा है, उतना-उतना संवर-निर्जरा का कारण है; उसमें किंचित् भी बंध का कारण नहीं है और बहिर्मुखपने से प्रवर्तती जितनी शुभाशुभ रागधारा है, उतनी बंध का कारण है, उसमें एक अंश भी संवर-निर्जरा का कारण नहीं है। भावलिंगी मुनिवरों को जो पंचमहाव्रत के परिणाम हैं, वे बन्ध के कारण हैं तथा एक शुद्ध परिणतिरूप ज्ञानधारा ही मोक्ष का कारण है। कथंचित् ज्ञानधारा व कथंचित् रागधारा मोक्ष का कारण हो - ऐसा वस्तु का स्वरूप नहीं है। जगत के जीवों को शुभभाव में धर्मबुद्धि का संस्कार पड़ गया है, उसके प्रति विशेष लगाव हो गया है, उसमें से धर्मबुद्धि का संस्कार छूटता नहीं है। इसकारण शुभभाव से लाभ होता है - ऐसा कोई कहते हैं तो प्रसन्न हो जाते हैं, वृत्ति के अनुसार उपदेश मिला तो ठीक लगता है। परन्तु भाई ! यह मान्यता बड़ी भारी मिथ्यात्वनामक शल्य है।" इसप्रकार इस कलश में यह बात एकदम साफ हो गई है कि भले ही छद्मस्थ ज्ञानी धर्मात्माओं के ज्ञानधारा और कर्मधारा एक साथ रहती हों; तथापि यह बात तो स्पष्ट ही है कि कर्मधारा बंध का ही कारण है, इस कारण हेय है, त्याज्य है और मुक्ति का कारण होने से ज्ञानधारा उपादेय है, विधेय है, साक्षात् धर्म है। १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ १८९-१९०

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