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गाथा १६१-१६३
"शुभक्रियारूप, अशुभक्रियारूप, अन्तर्जल्परूप, बहिर्जल्परूप इत्यादि करतूतिरूप क्रिया अथवा ज्ञानावरणी पुद्गल का पिंड, अशुद्ध रागादिरूप जीव के परिणाम - ऐसा कर्म जीवस्वरूप का घातक है, ऐसा जानकर आमूलचूल त्याज्य है।" ___ कोई आशंका करेगा कि मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन; ज्ञान, चारित्र इन तीनों का मिला हुआ है; पर यहाँ ज्ञानमात्र को मोक्षमार्ग कहा - ऐसा क्यों कहा?
उसका समाधान ऐसा है - शुद्धस्वरूप ज्ञान में सम्यग्दर्शन और सम्यग्चारित्र सहज ही गर्भित हैं। इसलिए दोष तो कुछ नहीं, गुण है।"
उक्त कलश का भावानुवाद कविवर बनारसीदासजी ने नाटक समयसार में इसप्रकार किया है -
( इकतीसा सवैया ) मुकतिके साधककौं बाधक करम सब,
आतमा अनादिकौ करम मांहि लुक्यौ है । एते पर कहै जो कि पाप बुरौ पुन्न भलौ,
सोई महामूढ़, मोखमारगसौं चुक्यौ है ॥ सम्यक सुभाउ लिये हियेमैं प्रगट्यौ ग्यान,
ऊरध उमंगि चल्यौ काहूपै न रुक्यौ है । आरसीसौ उज्जल बनारसी कहत आपु,
कारनसरूप है कै कारजकौं ढुक्यौ है ॥ मुक्ति के साधक के लिए सभी कर्म बाधक ही हैं; क्योंकि अनादिकाल से यह आत्मा कर्मों में ही तो छुपा हुआ है। यह बात सुनिश्चित होने पर भी कोई कहता है कि पापकर्म बुरा है और पुण्यकर्म भला है; किन्तु ऐसा कहने वाला महामूर्ख है और मुक्तिमार्ग से चूका हुआ है, विमुख है। जब सम्यग्दर्शन सहित ज्ञान उमंग के साथ आगे बढ़ता है तो किसी के रोके रुकता नहीं। ___ बनारसीदासजी कहते हैं कि आरसी (दर्पण) के समान उज्ज्वल वह ज्ञान स्वयं कारणस्वरूप होकर कार्यरूप परिणमित हो जाता है, सिद्धदशा को प्राप्त कर लेता है।