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समयसार अनुशीलन
'पुण्यकर्म भी पाप ही है।' आगम प्रस्तुत करते हुए कहते हैं -
" इसी अधिकार में आचार्य जयसेन की टीका में भी यह बात कहते हैं - 'अत्राह शिष्यः जीवादिसद्दहणम् इत्यादि व्यवहाररत्नत्रय व्याख्यानं कृतं तिष्ठति कथं पापाधिकार इति ।
यहाँ आचार्य जयसेन ने शिष्य के मुख में डालकर ऐसा प्रश्न उठाया है कि इस अधिकार में तो जीवादि के श्रद्धानरूप व्यवहाररत्नत्रय का व्याख्यान किया है, फिर इसे पाप अधिकार क्यों कहा गया है ?'
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इस बात को स्पष्ट करने के लिये स्वामीजी
जयसेनाचार्य के ही शब्दों में उत्तर इसप्रकार है -
'यद्यपि व्यवहारमोक्षमार्गों निश्चयरत्नत्रयस्योपादेयभूतस्य कारणभूतत्वादुपादेयः परम्परया जीवस्य पवित्रताकारणात् पवित्रस्तथापि बहिर्द्रव्यालंबनेन पराधीनत्वात्पतति नश्यतीत्येकं कारणं ।
यद्यपि व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चयरत्नत्रय का उपादेयभूत कारण होने से पवित्र है, तथापि बहिर्द्रव्य का आलम्बन होने से एवं पराधीन होने से स्वरूप से पतित करता है, स्वाधीनता को नष्ट करता है, इस अपेक्षा पुण्यरूप व्यवहाररत्नत्रय को पाप कहा गया है। '
व्यवहाररत्नत्रय के कषाय की मंदतारूप शुभभावों को पाप कहने का दूसरा कारण बताते हुए वे लिखते हैं -
'निर्विकल्पसमाधिरतानां व्यवहारविकल्पालंबनेन स्वरूपात्पतितं भवतीति द्वितीयंकारणम् इति निश्चयनयापेक्षया पापं ।
निर्विकल्प समाधि में लीन पुरुष व्यवहार के विकल्प के अवलम्बन से स्वरूप से पतित हो जाते हैं। इसकारण भी व्यवहाररत्नत्रय के शुभविकल्पों को निश्चयनय की अपेक्षा पाप कहा गया है।'
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इसी क्रम में तीसरा कारण बताते हुए आचार्य जयसेन ही आगे लिखते
हैं कि
'अथवा सम्यक्त्वादि विपक्षभूतानां मिथ्यात्वादीनां व्याख्यानं कृतमिति व पापाधिकारः ।