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समयसार अनुशीलन
अब यहाँ ज्ञान को रोकने वाले अज्ञान की बात कहते हैं । यहाँ आत्मा के अर्थ में जो 'ज्ञान' शब्द आया है, वह त्रिकाली आत्मा के अर्थ में नहीं है, बल्कि आत्मा का ज्ञानरूप से परिणमन होने पर जो सम्यग्ज्ञान प्रगट होता है, उसकी बात है । आत्मा अतीन्द्रिय ज्ञान व आनंद का कन्द प्रभु है । उसके सन्मुख ढलते हुए जो स्वरूप का ज्ञान होता है, वह सम्यग्ज्ञान है तथा वही मोक्ष का कारणरूप स्वभाव है। शास्त्रज्ञान स्वयं सम्यग्ज्ञान नहीं है; क्योंकि यह तो परलक्ष्यी ज्ञान है; अत: अज्ञान ही है । तथा वकालात, डॉक्टरी आदि का लौकिक ज्ञान भी परलक्ष्यी होने से सम्यग्ज्ञान नहीं, अज्ञान ही है। ज्ञान तो उसे कहते हैं जो स्वलक्ष्य से पूर्णानन्द के नाथ ज्ञानस्वरूप निज शुद्धात्मा को जानता - अनुभवता हुआ हो, वही ज्ञान मोक्ष का कारणरूप स्वभाव है। उसे रोकनेवाला एवं उसका विरोधी होने से शेष सब अज्ञान है। वस्तुत: ज्ञान का राग में व परद्रव्यों के जानने में अटकना या रुकना ही अज्ञान है और यह अज्ञान सम्यग्ज्ञान का विरोधी है।
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अब चारित्र का तीसरा बोल कहते हैं - पूर्णानंद के नाथ ज्ञायकमूर्ति भगवान आत्मा में रमने को, उसी में लीन होने को चारित्र कहते हैं ।
यहाँ कहते हैं कि स्वरूप में रमणतारूप प्रगट हुए चारित्र में आत्मा अतीन्द्रिय आनन्द को भोगता है । चारित्र कहते ही उसे हैं, जिसमें अतीन्द्रिय आनन्द का प्रचुर स्वसंवेदन प्रगट हुआ हो। भगवान आत्मा अकेला आनन्द की खान है। आत्मा की पर्याय में आनन्द की प्रकृष्ट धारा के प्रवाहित होने का नाम ही चारित्र है।
अब कहते हैं कि शुभाशुभभावरूप कषाय परिणाम ही चारित्र का विरोधी परिणाम है, चारित्र को रोकनेवाला भाव है। शरीर की नग्नता तो जड़ - माटी की अवस्था है, जो कि दु:ख का ही कारण है । आस्रव का भाव तो चारित्र है नहीं। चारित्र तो अपने सिद्ध समान शुद्धात्मा के स्वरूप में रमणता से उत्पन्न
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ १६७
२. वही, पृष्ठ १६८
३. वही, पृष्ठ १६९