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गाथा १५५
ही एक ज्ञान का ही भवन है, परिणमन है; इसलिए ज्ञान ही परमार्थतः मोक्ष का कारण है।"
आचार्य अमृतचन्द्र की उक्त व्याख्या का औचित्य सिद्ध करते हुए पंडित जयचंदजी छाबड़ा भावार्थ में लिखते हैं -
"आत्मा का असाधारण स्वरूप ज्ञान ही है और इस प्रकरण में ज्ञान को ही प्रधान करके विवेचन किया है। इसलिये 'सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र - इन तीनों स्वरूप ज्ञान ही परिणमित होता है' - यह कहकर ज्ञान को ही मोक्ष का कारण कहा है। ज्ञान है वह अभेद विवक्षा में आत्मा ही है - ऐसा कहने में कुछ भी विरोध नहीं है; इसीलिये टीका में कई स्थानों पर आचार्यदेव ने ज्ञानस्वरूप आत्मा को 'ज्ञान' शब्द से कहा है।"
उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी का स्पष्टीकरण इसप्रकार है -
"जीवादि सात तत्त्वों का श्रद्धान सम्यग्दर्शन - यह 'एकेन्द्रियादि जीव हैं व घट-पटादि अजीव हैं' - ऐसे श्रद्धान की बात नहीं है; अपितु जीव ज्ञायकभावरूप है, वीतरागस्वभावी है, रागस्वभाव व कर्मस्वभावरूप नहीं है - ऐसे स्वभाव-विभाव की भिन्नता के श्रद्धानरूप समकित की बात है। __ श्रद्धान स्वभाव से ज्ञान का होना - ऐसा जो टीका में कहा है, वहाँ ज्ञान का अर्थ आत्मा है। उस प्रकरण में आत्मा न कहकर ज्ञान कहने का प्रयोजन रागादि विकार से रहित आत्मा का ज्ञानरूप परिणमन है।
अब कहते हैं कि जीवादि पदार्थों के ज्ञानस्वभाव से ज्ञान का होना परिणमना ज्ञान है।
देखो, यहाँ शास्त्रज्ञान की बात नहीं है, वह तो परलक्ष्यी ज्ञान है। यहाँ तो आत्मा के ज्ञान का अन्तर में स्व-संवेदनरूप स्व का प्रत्यक्ष ज्ञानरूप होने को ज्ञान कहा है। ज्ञानस्वभावी भगवान आत्मा जो अपने स्वरूप से ज्ञानरूप परिणमता है, उसे ज्ञान कहते हैं और वह वीतरागी पर्याय है। भाई ! त्रिलोकीनाथ वीतराग सर्वज्ञदेव ने इन्द्रों व गणधरों के बीच धर्मसभा में जो कहा है - वही यह बात है।