Book Title: Samaysara Anushilan Part 02
Author(s): Hukamchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 176
________________ 367 गाथा १६० गुणमण्डित परिपूर्ण आत्मा को नहीं जानते। सर्वप्रकार से सर्वज्ञेयों को जाननेवाला आत्मा स्वयं को नहीं जानता। देखो, यहाँ राग में रुके जीव सर्वज्ञ को नहीं जानते - यह नहीं कहा, बल्कि यह कहा कि सर्वज्ञेयों को जाननेवाले अपने को नहीं जानता। अपने को जानना मुख्य है; क्योंकि जो स्वयं को जानता है, वह सर्व को जानता है। ___ पहले आया था कि राग मोक्षमार्ग की परिणति का घातक है। अब कहते हैं कि राग स्वयं बन्धस्वरूप है। इसीकारण उसका यहाँ निषेध है। सबको जानने-देखने वाले आत्मा का स्वभाव तो अबन्धस्वरूप है। ऐसा अबन्धस्वरूप भगवान आत्मा राग में अटक जाने के कारण स्वयं को नहीं जानता - यह कहा है। यह नहीं कहा कि सर्वज्ञेयों को नहीं जानता; क्योंकि स्वयं को जानना - यह निश्चय है और पर को जानना - यह व्यवहार है।' ___ सम्यग्दर्शन में अपने आत्मा के सम्पूर्ण स्वरूप की प्रतीति होती है। यद्यपि अभी केवलज्ञान नहीं है; तथापि सम्यग्दृष्टि को वर्तमान में अनन्तगुणों का पिण्ड परिपूर्ण ज्ञाता-दृष्टास्वभावी आत्मा प्रतीति में आता है। मैं अपने में परिपूर्ण हूँ - ऐसा उसे यथार्थ श्रद्धान होता है। वह राग को अपना नहीं मानता एवं अल्पज्ञ पर्याय जितना भी अपने को नहीं मानता। देखो, यह चतुर्थ गुणस्थानवाले सम्यग्दृष्टि की बात है। जो सम्यग्दर्शन बिना बाह्य व्रतादि के राग-विकल्पों में रुक जाता है, उसे अपने सम्पूर्ण स्वरूप का अनुभव नहीं होता।" इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि शुभाशुभभाव में उलझा यह आत्मा सबको जानने-देखने के स्वभाववाले निजभगवान आत्मा को नहीं जानता - इसी वजह से कर्ममल से लिप्त होता है और संसारसागर में परिभ्रमण करता है। १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ १५३-१५४ २. वही, पृष्ठ १५४ ३. वही, पृष्ठ १५६

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