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समयसार अनुशीलन
366 यह तो पहले कहा ही जा चुका है कि यहाँ आत्मा को ज्ञान शब्द से अभिहित किया जा रहा है। फिर भी कहीं कोई भ्रम न रह जायें - इस कारण भावार्थ में जयचन्दजी छाबड़ा एक बार फिर सावधान करते हुए कहते हैं - ___ "यहाँ भी 'ज्ञान' शब्द से आत्मा समझना चाहिए। ज्ञान अर्थात् आत्मद्रव्य स्वभाव से तो सबको जानने-देखनेवाला है; परन्तु अनादि से स्वयं अपराधी होने के कारण कर्मों से आच्छदित है; इसलिये वह अपने सम्पूर्ण स्वरूप को नहीं जानता, यों अज्ञानदशा में रह रहा है। इसप्रकार केवलज्ञानस्वरूप अथवा मुक्तस्वरूप आत्मा कर्मों से लिप्त होने से अज्ञानरूप अथवा बद्धरूप वर्तता है; इसलिए यह निश्चित हुआ कि कर्म स्वयं ही बन्धस्वरूप है। अतः कर्मों का निषेध किया गया है।"
इसप्रकार यह सुनिश्चित हो गया कि समस्त शुभाशुभभाव कर्मबंधस्वरूप हैं, कर्मबंध के कारण हैं, आत्मा की दुर्दशा के प्रतीक हैं; अतः इन्हें मुक्ति के मार्ग में किसी प्रकार भी उपादेय नहीं माना जा सकता।
स्वामीजी भी कहते हैं -
"देखो, मूलगाथा में 'सव्वणाणदरसी' पाठ है; उसमें से टीकाकार आचार्यदेव ने यह रहस्य निकाला है कि विश्व को अर्थात् सर्वपदार्थों को जाननेदेखने के स्वभाववाला द्रव्य जो स्वयं है, उसे जानना चाहिये; उसके बदले तू पर के राग को जानता है, अनुभव करता है और उसी में रुक जाता है; यह तेरा अपराध है, अज्ञानभाव है; क्योंकि यह राग आस्रव व बन्ध तत्त्व है।
भगवान ! तू परमात्मस्वरूप है। जिसतरह परमेश्वर परमात्मा प्रगट पर्याय में सर्वज्ञ या सर्वदर्शी है; उसीतरह तू स्वभाव में त्रिकाली द्रव्यस्वरूप सर्वज्ञसर्वदर्शी है। जो ऐसे त्रिकाली द्रव्यस्वरूप को न देखकर राग को देखने में ही अटक जाते हैं; वे पर्यायदृष्टि में अटक जाने के कारण अपने सर्वगुणसम्पन्न अनन्तज्ञान, अनन्तसुख आदि अनंत सामर्थ्य से भरे अनन्त
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ १५२