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समयसार अनुशीलन
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परभावस्वरूप मैल से व्याप्त हुआ श्वेतवस्त्र का स्वभावभूत श्वेतपना तिरोभूत हो जाता है।
देखो, यहाँ 'सच्चा चारित्र किसे कहते हैं ?' यह समझाया जा रहा है। त्रिकाल आनन्दस्वरूपी भगवान आत्मा जो अपने ही अंदर सदा विद्यमान है, उसमें अन्तर्दृष्टि करके उसी में अन्तर्लीन होने पर, रमणता करने पर जो अतीन्द्रिय आनन्द का एवं शान्ति का वेदन होता है, वह चारित्र है। उसे ही यहाँ 'ज्ञान का चारित्र' कहा गया है। ज्ञान का चारित्र अर्थात् आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द का प्रचुर स्व-संवेदन। आत्मा के इसी चारित्र को यहाँ मोक्ष का कारणरूप स्वभाव कहा है।
पंच महाव्रतादिरूप पुण्य का परिणाम मोक्ष का कारणरूप स्वभाव नहीं है। यह तो शुभराग है, कषायरूप मैल है। यह तो ज्ञान के चारित्र को अर्थात् आत्मा के चारित्र को ढक देता है, आच्छादित करता है, घात करता है। जो आत्मा का घातक है, वह आत्मा को लाभदायक कैसे हो सकता है? जो व्यक्ति पुण्य के परिणाम को आत्मा के लिये लाभदायक मानता है, उसकी तो मूल मान्यता ही उल्टी है। ___ तीर्थंकर परमात्मा की दिव्यध्वनि में तो चारित्र का स्वरूप ऐसा आया है कि - सच्चिदानन्दस्वरूप वीतरागस्वभावी ध्रुव आत्मा में अन्तररमणतारूप निर्विकल्प वीतराग परिणति का होना ही चारित्र है तथा ऐसे ज्ञान के चारित्र का अर्थात् आत्मा के चारित्रगुण का परभावरूप से परिणमना, कषायरूप होना, शुभरागरूप होना आत्मा का घातक परिणाम है। उस घातक परिणाम को करते-करते अर्थात् शुभरागरूप व्यवहार करते-करते वीतरागभावरूप निश्चय धर्म प्रगट कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता।' ___ इसप्रकार मोक्ष के कारणभूत भावों को शुभभावरूप कर्म तिरोभूत करते हैं, अतः इनका निषेध किया गया है।"
इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि शुभाशुभभावरूप कर्म बंध के कारण होने से निषेध करने योग्य हैं।
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ १४६ २. वही, पृष्ठ १४८