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समयसार अनुशीलन
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परमट्ठमासिदाणं दु जदीण कम्मम्खओ होदि – सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रैका ग्रयपरणतिलक्षणं निजशुद्धात्मभावनारूपं परमार्थमाश्रितानां तु यतीनां कर्मक्षयो भवतीति यतः कारणादिति।
निश्चयार्थ को छोड़कर व्यवहारनय के विषय में विद्वान - ज्ञानी लोग प्रवृत्ति नहीं करते हैं।
क्यों नहीं करते? क्योंकि कर्मों का क्षय तो सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्ररूपएकाग्रपरिणतिवाले और निजशुद्धात्मा की भावनारूप परमार्थ के आश्रित रहने वाले मुनियों के होता है।" __ प्रथम अर्थ के स्वीकार करने पर ऐसा लगता है कि जैसे विद्वान और यतीश्वर परस्पर प्रतिद्वन्द्वी हों। विचारने की बात यह है कि क्या साधुजन विद्वान् नहीं होते, क्या साधुजन विद्वान् नहीं हो सकते ? इसीप्रकार क्या विद्वान् संयम धारण करके मुनिराज नहीं बन सकते ? जबकि वस्तुस्थिति तो यह है कि हमारे कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, अकलंक, अमृतचन्द्र जैसे अनेकों यतीश्वर उच्चकोटि के विद्वान् भी थे।
आचार्य जयसेन ने तो उक्त टीका में विद्वान् शब्द का अर्थ ज्ञानी ही किया है।
यदि यह कहा जाय कि कुछ विद्वान् आत्मज्ञानशून्य भी हो सकते हैं, तो क्या कुछ मुनिराज भी आत्मज्ञानशून्य नहीं हो सकते? मूल बात तो यह है कि आत्मज्ञानशून्य व्यक्ति के कर्मों का नाश नहीं होता और आत्मज्ञानियों के कर्मों का नाश होता है। इसीलिए तो आचार्य अमृतचन्द्र अपनी टीका में न तो विद्वान् शब्द का प्रयोग करते हैं और न यति शब्द का ही। वे तो कुछ लोग (केषांचित्) शब्द का ही उपयोग करते हैं, उनका कथन मूलतः इसप्रकार है -
"कुछ लोग मोक्ष के पारमार्थिक हेतु से भिन्न जो व्रत, तपादि शुभकर्म हैं; उन्हें मोक्ष का हेतु मानते हैं। यहाँ उन सभी का निषेध किया गया है; क्योंकि वे व्रतादि अन्य द्रव्य के स्वभाववाले पुद्गलरूप हैं; इसकारण उनके स्वभाव