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समयसार अनुशीलन
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आत्मा का जीवादि पदार्थों को जाननेरूप परिणमना या निजज्ञायक के लक्ष्य से ज्ञानपर्यायरूप परिणमना ही सम्यग्ज्ञान है। पुण्य-पाप से रहित शुद्ध निजज्ञायक को जाननेवाला अर्थात् ज्ञायक के लक्ष्य से परिणमन करनेवाला ज्ञान भी पुण्य-पाप के भावों से रहित है। भाई ! यह सम्यग्ज्ञान की पर्याय वीतरागी पर्याय है।
अब कहते हैं कि रागादि के त्यागस्वभाव से ज्ञान का होना परिणमना चारित्र है।
देखो, पाँच महाव्रतों को पालने का परिणाम, अट्ठाईस मूलगुणों के पालन करने का परिणाम राग है। अव्रत का परिणाम पापभाव है, व्रत का परिणाम पुण्यभाव है। इन दोनों के त्यागभावरूप ज्ञान का अर्थात् आत्मा का होना परिणमना धर्म है। यहाँ आत्मा ज्ञानस्वभाव से अन्तर में एकाग्र होकर परिणमता है, वह सहज ही रागरूप नहीं होता।
यह परिणमन ही राग के अभावरूप है तथा यही सम्यक्चारित्र है। यह राग है, मैं इसे छोड़ता हूँ' - ऐसा नहीं होता, बल्कि जब परिणाम स्वरूप में मग्न होकर स्थिर होता है, तब राग की उत्पत्ति ही नहीं होती। यही स्वरूप के आचरणरूप चारित्र है।
इसप्रकार सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्र - तीनों एक ज्ञान का ही भवन (परिणमन) है। इसलिये ज्ञान ही परमार्थ (वास्तविक) मोक्ष का कारण है।"
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा में समागत विषय-वस्तु को निश्चय-व्यवहार की संधिपूर्वक इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"जीवादि नौ पदार्थों का विपरीताभिनिवेश रहित श्रद्धान सम्यग्दर्शन है; इन्हीं पदार्थों का संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित सुनिश्चित ज्ञान सम्यग्ज्ञान है और उक्त सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक रागादि का परिहार सम्यक्चारित्र है - यह व्यवहार मोक्षमार्ग है। अथवा भूतार्थनय से जाने हुए उन्हीं नवपदार्थों
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ ११५-११६ २. वही, पृष्ठ ११९ ३. वही, पृष्ठ १२०