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इसके बाद वे पुण्य-पापाधिकार की अबतक की छह गाथाओं का उपसंहार करते हुए नयविभाग को स्पष्ट कर देते हैं, जो इसप्रकार है
" यद्यपि अनुपचरितअसद्भूतव्यवहारनय से द्रव्यपुण्यपापों में भेद है और अशुद्धनिश्चयनय से उन दोनों से उत्पन्न इन्द्रियजन्य सुख-दुःख में भी भेद है; तथापि शुद्धनिश्चयनय से पुण्य-पाप में और उनसे उत्पन्न होने वाले इन्द्रियजन्य सुख - दुःख में कोई भेद नहीं है ।"
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गाथा १५०
प्रश्न : उत्थानिका में कहा गया था कि शुभ और अशुभ दोनों ही भाव कर्म बंध के कारण हैं - इस बात को अब आगम से सिद्ध करते हैं; किन्तु गाथा में किसी आगम वाक्य को प्रस्तुत न करके मात्र इतना ही कहा है कि 'रागी जीव बँधता है और विरागी मुक्त होता है - ऐसा जिनोपदेश है।' इसका क्या कारण है?
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उत्तर : अरे भाई ! जिनोपदेश ही तो आगम है। अतः इतना कहना ही पर्याप्त है।
प्रश्न : आगम का प्रमाण भी तो देना चाहिए था ?
उत्तर : एक बात तो यह है कि आगम का उक्त कथन तत्कालीन समाज में सर्वजनप्रसिद्ध होने से किसी ग्रन्थ विशेष के उल्लेख की आवश्यकता ही नहीं थी; और दूसरी बात यह भी तो है कि तत्कालीन युग में आगम को लिखित रूप दिया जाना आरंभ ही हुआ था, अधिकांश आगम मौखिक ही चल रहा था । अतः 'ऐसा जिनोपदेश है' - इतना लिखना ही पर्याप्त था ।
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'रागी जीव कर्म बाँधता है' इस वाक्य में समागत 'रागी' शब्द का आशय स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं
"यहाँ अस्थिरता जनित राग की बात नहीं है, यहाँ तो जिसको राग में एकत्वबुद्धि है, अहंबुद्धि है; उस मिथ्यादृष्टि को रागी कहा है। ज्ञानी सम्यग्दृष्टि को भी अस्थिरता के कारण राग होता है; परन्तु वह राग में अनुरक्त नहीं होता, रुचिवन्त नहीं होता; इसकारण वह विरागी है।'
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ ६३