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समयसार गाथा - १५० - 'सभीप्रकार का रागभाव बंध का कारण है' इस बात को युक्ति से सिद्ध करने के उपरान्त अब इसी बात की पुष्टि आगम से करते हैं । इस १५०वीं गाथा की उत्थानिका आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार लिखते हैं -
"अथोभयं कर्म बन्धहेतुं प्रतिषेध्यं चागमेन साधयति - अब यह बात आगम से सिद्ध करते हैं कि दोनों ही प्रकार के कर्म बंध के कारण हैं; इसकारण निषेध्य हैं।"
रत्तो बन्धदि कम्मं मुच्चदि जीवो विरागसंपत्तो। एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु मा रज्ज ॥१५०॥
विरक्त शिवरमणी वरें अनुरक्त बाँधे कर्म को।
जिनदेव का उपदेश यह मत कर्म में अनुरक्त हो ॥१५०॥ रागी जीव कर्म बाँधता है और वैराग्य को प्राप्त जीव कर्मों से छूटता है; - यह जिनेन्द्र भगवान का उपदेश है, इसलिए कर्मों (शुभाशुभ कर्मों) से राग मत करो।
इस महत्वपूर्ण गाथा की टीका आचार्य अमृतचन्द्र अत्यन्त संक्षेप में इसप्रकार लिखते हैं -
"रागी जीव कर्म बांधता है वैराग्य को प्राप्त जीव कर्मों से छूटता है - यह आगमवचन सामान्यपने रागीपन की निमित्तता से शुभाशुभ दोनों कर्मों को अविशेषतया बंध का कारणरूप सिद्ध करता है और इसी कारण दोनों कर्मों का निषेध करता है।" ___ आचार्य जयसेन इस गाथा के भाव को विशेष खुलासा करते हुए तात्पर्यवृत्ति में कहते हैं कि शुभ और अशुभ - दोनों ही भाव न केवल बंध के ही हेतु हैं; अपितु हेय हैं, त्याज्य हैं, निषेध करने योग्य है।