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गाथा १५०
+ बापू! ऐसा अवसर तो अनंतबार मिला, परन्तु राग का प्रेम छूटे बिना सब सुना-सुनाया, करा-कराया निरर्थक ही रहा; क्योंकि चारों ही अनुयोगों के शास्त्रों का तात्पर्य तो एक वीतरागता ही है। शास्त्र सुनकर भी यदि राग की रुचि नहीं छूटी और स्वभाव की दृष्टि नहीं हुई तो शास्त्र का मूल तात्पर्य नहीं जाना।" ___ उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि यहाँ रागी शब्द का अर्थ सामान्य राग नहीं लेना, अपितु शुभाशुभराग में एकत्व-ममत्व बुद्धिरूप राग लेना चाहिए, रागभावों का स्वयं को कर्ता-भोक्ता माननेरूप राग लेना चाहिए तथा शुभभावों में धर्म माननेरूप राग लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि मिथ्यात्व संबंधी राग लेना चाहिए। शुभराग को धर्म मानना ही मिथ्यात्व है और उसी को यहाँ राग कहा गया है। ऐसे राग से संयुक्त जीव रागी है तथा वही कर्मों को बाँधता है और कर्मों से बंधता है। . ___इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि अशुभभावों के समान शुभभाव भी बंध के कारण होने से मोक्ष के हेतु नहीं हैं; मोक्ष का हेतु तो एकमात्र वीतरागभाव ही है, ज्ञानभाव ही है। ___ अब आचार्य अमृतचन्द्रदेव इसी भाव के पोषक दो कलश लिखते हैं, जो इसप्रकार है :
(स्वागता) कर्म सर्वमपि सर्वविदो यद् बंधसाधनमुशन्त्यविशेषात् । , तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिद्धं ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः ॥१०३॥
(दोहा) जिनवाणी का मर्म यह बंध करे सब कर्म ।
मुक्तिहेतु बस एक ही आत्मज्ञानमय धर्म ॥१०३॥ सर्वज्ञदेव समस्त शुभाशुभ कर्मों को समान रूप से ही बंध का कारण कहते हैं; इसलिए यह सिद्ध हुआ कि उन्होंने समस्त शुभाशुभकर्मों का ही निषेध किया है और ज्ञान को मुक्ति का हेतु कहा है।
१. प्रवचनरत्नाकर भाग ५, पृष्ठ ६४-६५ .