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गाथा १५०
* बनारसीदासजी इस छन्द में कहते हैं कि भले ही लौकिक दृष्टि से अथवा .. जिनागम में भी व्यवहारनय से शुभभाव को अच्छा कहा जाता हो; परन्तु आत्मधर्म में, आत्मसाधना के मार्ग में तो सभी शुभाशुभकर्म त्यागने योग्य ही हैं।
देखो, यहाँ शुभ और अशुभ दोनों ही भावों को कर्मरूपी रोग कहा है। इसी ग्रन्थ के आरंभ में इस ग्रन्थ में समागत मूल शब्दों के पर्यायवाची शब्द दिये गये हैं, नाममाला दी गई है; उसमें पुण्य के नामों में अकररोग और पाप के नामों में कंपरोग दिये गये हैं, जो इसप्रकार हैं -
(दोहा ) पुन्य सुकृत ऊरधवदन, अकररोग शुभकर्म । सुखदायक संसारफल, भाग बहिर्मुख धर्म ॥ पाप अधोमुख एन अघ, · कंपरोग दुखधाम ।
कलिल कलुस किल्विस दुरित, असुभकरम के नाम ॥ पुण्य, सुकृत, उर्ध्ववदन, अकररोग, शुभकर्म, सुखदायक, भाग्य, संसारफल, बर्हिमुख और धर्म - ये सभी पुण्य के नाम हैं। __पाप, अधोमुख, एन, अघ, कंपरोग, दुखधाम, कलिल, कलुष, किल्विष, दुरित और अशुभकर्म - ये सभी पाप के नाम हैं।
अकर माने अकड़! पुण्य के उदय में लोग अभिमानी होकर अकड़ने लगते हैं, इसकारण पुण्य को अकररोग अर्थात् अकड़रोग कहा जाता है और पाप के उदय में डर के मारे लोग कांपने लगते हैं, इसकारण पाप को कंपरोग कहा जाता है।
उक्त कलश पर प्रवचन करते हुए स्वामीजी कहते हैं -
"यह बात सामान्यजनों को सहज भाव से स्वीकृत नहीं होती, इसलिये आचार्यदेव ने सर्वज्ञ के आधार से यह बात कही है। वर्तमान में बहुत गड़बड़ी चल रही है। अधिकांश जन व्रत, तप, भक्ति आदि बाह्यक्रियाओं में ही धर्म मानकर अटके हैं। कहते हैं कि यही सब करते-करते मोक्षमार्ग व मोक्ष हो