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समयसार अनुशीलन
सामान्यरूप से दशवें गुणस्थान तक राग रहता है, इस अपेक्षा से वहाँ तक भी जीव रागी कहलाता है; परन्तु यहाँ वह अपेक्षा नहीं है । यहाँ तो जिसको राग से प्रेम है, राग में स्वामीपना है व शुभराग में धर्मबुद्धि है, उसे राग-रक्त अर्थात् रागी कहा है।
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स्त्री-पुत्र, दुकान-धन्धा आदि बाह्य सामग्री छोड़ देने मात्र से कोई वैरागी नहीं कहा जा सकता। यहाँ तो यह कहा है कि जिसके अन्तर में से राग की, पर की रुचि छूट गई है और जिसको आनन्द के साथ वीतराग स्वभावी शुद्ध चैतन्यमय आत्मा की दृष्टि, रुचि, ज्ञान व अनुभव हुआ है - वही विरक्त अर्थात् विरागी है, वही कर्म से छूटता है, ऐसा आगम वचन है ।
कुछ लोग कहते हैं कि जो केवले अशुभ राग में रचे-पचे रहते हैं, उनको शुभराग करने को कहें तो क्या बाधा है?
भाई ! शुभराग कोई नवीन वस्तु नहीं है। अनादि से यह शुभाशुभ भाव तो करता ही आया है। जब निगोद में था, तब भी शुभाशुभ भाव के परिणाम होते थे। करणानुयोग के कथनानुसार सभी जीवों को क्षण-क्षण शुभाशुभ भाव झूले
झूलने की तरह होते ही रहते हैं। आज भी निगोद में ऐसे अनन्त जीव हैं, . जिन्होंने आज तक कभी भी त्रस पर्याय नहीं पाई, उन्हें भी क्रमशः शुभाशुभभाव होते ही रहते हैं। सभी जीवों को शुभाशुभ भावों की धारा निरन्तर चालू रहती है। वहाँ यद्यपि दया, दान, पूजा भक्ति आदि क्रियायें नहीं हैं, परन्तु शुभ व अशुभ भाव तो वहाँ भी हुआ ही करते हैं।
इस तरह आचार्य कहते हैं कि भाई ! शुभाशुभ भाव कोई अपूर्व वस्तु नहीं है। आत्मभान बिना अज्ञानी ने नववें ग्रैवेयक तक जाने योग्य शुक्ललेश्या के शुभभाव भी अनंत बार किये हैं, परन्तु उनसे क्या लाभ हुआ ? रंचमात्र भी दुःख कम नहीं हुआ ।
शुभभाव से पुण्य बंधा, मनुष्य पर्याय मिली, मनुष्य पर्याय में धर्म सुननेसमझने का अवसर मिला - यह लाभ तो शुभभाव से ही हुआ न ?
१. प्रवचनरत्नाकर भाग ५, पृष्ठ ६३ २. वही, पृष्ठ ६३-६४
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