________________
समयसार अनुशीलन
- 320
शुभाशुभभाव को बुरा जानकर यह कहने का भाव ही यह है कि ये भाव होते तो अवश्य हैं, यदि होते ही नहीं, तब तो वर्तमान में ही वीतरागी ठहरे, किन्तु ऐसा तो है नहीं। ज्ञानी विद्यमान शुभाशुभभावों को बुरा (अहितरूप) जानकर, उनसे एकत्व नहीं करता। .
'परमार्थ से बुरा जानकर' इस कथन का यदि कोई यह अर्थ करे कि 'व्यवहार से ठीक मानकर' तो यह अर्थ भी ठीक नहीं है। शुभ को तो व्यवहार से ठीक कहा जाता है; परन्तु अशुभ को व्यवहार से भी ठीक नहीं कहा जा सकता। बन्धन की अपेक्षा तो दोनों एक समान ही बुरे हैं। व्यवहार से ठीक कहने का अर्थ ही यह है कि परमार्थ से ठीक नहीं है। इसकारण यहाँ कहते हैं कि ज्ञानी शुभाशुभभाव के साथ राग अर्थात् अन्दर ही अन्दर चित्त में प्रीति नहीं करते तथा संसर्ग अर्थात् वाणी द्वारा प्रशंसा व काया द्वारा संकेतों से या हाथ वगैरह की चेष्टा से 'ये भाव ठीक हैं' - ऐसा व्यक्त नहीं करते।
इससे ऐसा नहीं समझना चाहिए कि शुभभाव को छोड़कर अशुभभाव करना चाहिए। भाई! तुझे जो अनादि की शुभ की रुचि है, उसका त्याग कर दे; क्योंकि शुभभाव से धर्म होता है व शुभभाव धर्म है - यह मान्यता विपरीत है, मिथ्यात्व की शल्य है।"
आचार्य जयसेन इन गाथाओं का अर्थ लिखते हुए लिखते हैं -
"रूपलावण्य, सौभाग्य; कामदेव, इन्द्र, अहमिन्द्र; ख्याति, लाभ और पूजादि की भावना से, भोगों की आकांक्षा एवं निदान से जो व्यक्ति व्रत, तपश्चरण, दान, पूजादि करता है; वह पुरुष व्रतादिक को उसीप्रकार व्यर्थ खोता है, जिसप्रकार कोई व्यक्ति छाछ के लिए रत्न बेचता है, राख (भस्म) के लिए रत्नराशि को जलाता है, डोरे के लिए मोतियों के हार को पीस देता है, कोदों (कोद्रव) नाम के अति तुच्छ अनाज के उत्पादन के लिए अगर चन्दन के वन को काटता है; किन्तु शुद्धात्मानुभूति की साधना के लिए जो बाह्य व्रत,
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ ५९ २. वही, पृष्ठ ६१