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समयसार अनुशीलन
जंगली हाथियों को पकड़ने के लिए जंगल में एक बहुत बड़ा गहरा गढ्ढा खोदा जाता है। उसे ढककर ऊपर मिट्टी डालकर दूब-घास और झाड़ियाँ डाल दी जाती हैं, जिससे ठोस जमीन ही प्रतीत हो। जंगली हाथियों को फँसाने के लिए एक चतुर हथिनी को प्रशिक्षित (ट्रेन्ड) करते हैं। वह हथिनी अपनी कामुक चेष्टाओं से जंगली हाथियों को आकर्षित करती है, मोहित करती है
और अपने पीछे-पीछे आने के लिए प्रेरित करती है। उनसे नाना प्रकार की क्रीड़ायें करती हुई वह हथिनी उन्हें उस गढ्ढ़े के समीप लाती है। तेजी से भागती हुई वह कुट्टनी हथिनी तो जानकार होने से उस गढ्ढ़े से बचकर निकल जाती है, पर तेजी से पीछा करने वाला कामुक हाथी भागता हुआ उस गढ्ढ़े में गिर जाता है। इसप्रकार अपनी स्वाधीनता खो देता है, बंधन में पड़ जाता है। वह कुट्टनी हथिनी चाहे सुन्दर हो, चाहे कुरूप हो; पर उसके मोह में पड़ने वाला हाथी बंधन को प्राप्त होता ही है।
उक्त उदाहरण के माध्यम से यहाँ यह समझाया जा रहा है कि कर्म चाहे शुभ हों या अशुभ, पुण्यरूप हों या पापरूप; उनसे राग करने वाले, उन्हें करने योग्य मानने वाले, उन्हें उपादेय मानने वाले संसाररूपी गढ्ढे में गिरते हैं, फंसते हैं, बंधन को प्राप्त होते हैं। अतः कर्म चाहे शुभ हों या अशुभ, पुण्यरूप हो या पापरूप - दोनों से ही राग व संसर्ग नहीं करना चाहिए, उन्हें उपादेय नहीं मानना चाहिए। __मोही हाथी के कुरुप हथिनी की अपेक्षा सुरुप (सुन्दर) हथिनी पर मोहित होने के अवसर अधिक हैं; इसकारण उक्त कुट्टनी हथिनी का कुरुप होने की अपेक्षा सुरुप होना अधिक खतरनाक है। उसीप्रकार मोही जीव के पापकर्मों की अपेक्षा पुण्यकर्मों पर मोहित होने के अवसर अधिक हैं; इसकारण पुण्य के सन्दर्भ में अधिक सावधानी अपेक्षित है।
उक्त गाथाओं का मर्म खोलते हुए स्वामीजी कहते हैं -
"देखो, यहाँ स्पष्ट कहा है कि शुभ व अशुभ - दोनों ही कर्म कुशील हैं और निज चैतन्य स्वभाव की दृष्टि, ज्ञान व रमणता सुशील है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि निज ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा का श्रद्धान, ज्ञान व ।