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समयसार गाथा १४६ से १४९
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अब इसी बात को आगामी गाथाओं में उदाहरण से समझाते हैं सोवणियं पि णियलं बंधदि कालायसं पि जह पुरिसं । बंधदि एवं जीवं सुहमसुहं वा कदं कम्मं ॥ १४६ ॥ तम्हा दु कुसीलेहि य रागं मा कुणह मा व संसग्गं । साहीणो हि विणासो कुसीलसंसग्गरायेण ॥ १४७ ॥ जह णाम कोवि पुरिसो कुच्छियसीलं जणं वियाणित्ता । वज्जेदि तेण समयं संसग्गं रागकरणं च ॥ १४८ ॥ एमेव कम्मपयडीसीलसहावं च कुच्छिदं णादुं । वज्र्ज्जति परिहरंति य तस्संसग्गं सहावरदा ॥ १४९ ॥ ज्यों लोह बेड़ी बाँधती त्यों स्वर्ण की भी बाँधती । इस भाँति ही शुभ - अशुभ दोनों कर्म बेड़ी बाँधती ॥ १४६ ॥ दुःशील के संसर्ग से स्वाधीनता का नाश हो । दुःशील से संसर्ग एवं राग को तुम मत करो ॥ १४७ ॥ जगतजन जिसतरह कुत्सितशील जन को जानकर । उस पुरुष से संसर्ग एवं राग करना त्यागते ॥ १४८ ॥ बस उसतरह ही कर्म कुत्सित शील है - यह जानकर । निजभावरत जन कर्म से संसर्ग को हैं त्यागते ॥ १४९ ॥ जिसप्रकार लोहे की बेड़ी के समान ही सोने की बेड़ी भी पुरुष को बांधती है; उसीप्रकार अशुभ कर्म के समान ही शुभकर्म भी जीव को बाँधता है।
इसलिए इन दोनों कुशीलों के साथ राग और संसर्ग मत करो; क्योंकि कुशील के साथ राग और संसर्ग करने से स्वाधीनता का नाश होता है।
जिसप्रकार कोई पुरुष कुशील पुरुष को जानकर उसके साथ राग करना और संसर्ग करना छोड़ देता है; उसीप्रकार स्वभाव में रत पुरुष कर्मप्रकृति के कुत्सितशील ( कुशील) को जानकर संसर्ग करना छोड़ देते हैं।