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समयसार अनुशीलन
ज्ञान कराने के लिये तो भेद है ही; परन्तु फिर भी उसका निषेध जो किया, उसका हेतु अभेद पक्ष को प्रधान करना ही है। दृष्टि के विषय में पुण्य-पाप का पक्ष नहीं है, इसकारण अभेद पक्ष से देखने पर तो कर्म एक ही है, दो नहीं। इस तरह भेद का निषेध करके स्वभाव का आश्रय कराया है।"
जो बात टीका में कही गई है, अब उसी बात को कलश के माध्यम से कहते हैं -
__ ( उपजाति) हेतुस्वभावानुभवाश्रयाणां सदाप्यभेदान्न हि कर्मभेदः । तबंधमार्गाश्रितमेकमिष्टं स्वयं समस्तं खलु बंधहेतुः ॥१०२॥
(रोला) अरे पुण्य अर पाप कर्म का हेतु एक है। आश्रय अनुभव अर स्वभाव भी सदा एक है। अतः कर्म को एक मानना ही अभीष्ट है। . .
भले-बुरे का भेद जानना ठीक नहीं है ॥१०२॥ ___ हेतु, स्वभाव, अनुभव और आश्रय - इन चारों का सदा ही अभेद होने से कर्म (पुण्य-पाप) में निश्चय से भेद नहीं है। इसलिए निश्चय से समस्त कर्म (पुण्य-पाप) बंधमार्ग के आश्रित हैं और बंध के कारण हैं; इसकारण कर्म एक ही माना गया है, मानना योग्य है।
इस कलश का अर्थ कलशटीका में विस्तार से किया गया है। आत्मख्याति टीका, कलश और कलश टीका - इन तीनों को आधार बनाकर कविवर बनारसीदासजी ने नाटक समयसार में तीन छन्दों की रचना की है, जिनमें एक चौपाई और दो इकतीसा सवैया हैं। आरंभिक दो छन्दों में शिष्य की ओर से सतर्क प्रश्न उपस्थित किया गया है और अन्तिम छन्द में उत्तर दिया गया है, समाधान किया गया है, जिसके पढ़ने से सम्पूर्ण विषयवस्तु सहज ही स्पष्ट हो जाती है।
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ ३२-३३