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गाथा १४५
नहीं भाई ! उनमें कहीं कोई विरोध नहीं है। गुरु का कथन निश्चयनय के आश्रय से है और शिष्य का कथन व्यबहारनय के आश्रय से है। दोनों की अपेक्षायें भिन्न-भिन्न हैं। जिनवाणी में जहाँ जो नय-विवक्षा हो, उसे उसी विवक्षा से समझना चाहिये। 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः ' - यह जो सूत्र है, यह पर्यायार्थिकनय का कथन है, निश्चयनय का नहीं। निश्चयनय सेतो त्रिकाली शुद्ध द्रव्य के आश्रयरूप एक ही मोक्षमार्ग है। सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र के परिणाम जिन्हें यहाँ जीव के परिणाम कहें, वे भेदरूप पर्यायार्थिकनय के कथन हैं। प्रवचनसार गाथा २४२ में आता है कि 'वे भेदात्मक होने से सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र मोक्षमार्ग हैं ऐसा पर्यायप्रधान व्यवहारनय से उसका प्रज्ञापन है, वह मोक्षमार्ग अभेदात्मक होने से एकाग्रता मोक्षमार्ग है' - ऐसा द्रव्यप्रधान निश्चयनय से उसका प्रज्ञापन है।'
समयसार कलश टीका कलश १६ में कहा है कि निश्चय सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र के जो निर्मल परिणाम हैं; वे भेद हैं, पर्याय हैं; अत: मेचक हैं, मलिन हैं और इसकारण व्यवहार हैं तथा अभेद से जो आत्मा एकस्वरूप है, Sarahah है, निर्मल है। भाई, शैली तो देखो ! कहाँ क्या कहा है - इसकी खबर बिना एकान्त से खेंचातानी करे तो नहीं चलेगी। कलश टीकाकार ने मोक्षमार्ग के परिणाम को भेदरूप होने से मेचक कहा और सम्यग्ज्ञानदीपिका में श्री धर्मदासजी क्षुल्लक ने इसी को अशुद्ध कहा है। मोक्ष के परिणाम भेदरूप हैं, मेचक हैं; अतः अशुद्ध हैं।
यहाँ कहते हैं कि मोक्षमार्ग तो केवल जीव के परिणाममय ही हैं। यह अभेद से बात कही है तथा बंधमार्ग केवल पुद्गल के ही परिणाममय हैं। तात्पर्य यह है कि कर्म एक बंधमार्ग के आश्रय से ही होता है, मोक्षमार्ग में नहीं होता; अत: कर्म एक ही है। इसप्रकार कर्म के शुभाशुभ भेदरूप पक्ष को गौण करके उसका निषेध किया है।
गजब की भाषा है' गौण करके' कहा, तात्पर्य यह है कि भेद है तो अवश्य; परन्तु केवल अभेद की दृष्टि कराने के लिये भेद को गौण किया है। भेद का