________________
286
समयसार अनुशीलन
से ज्ञानी को राग नहीं है - ऐसा कहा जाता है। अत: जहाँ जो अपेक्षा हो, उसे वैसा ही समझना चाहिए। "
इसप्रकार ९५, ९६ एवं ९७ - इन तीन कलशों में यही कहा गया है कि रागादि विकारीभावों में कर्तृत्वबुद्धि होने के कारण मिथ्यादृष्टि जीवों को उनका कर्त्ता कहा गया है; किन्तु रागादिभावों में कर्तृत्वबुद्धि नहीं होने के कारण सम्यग्दृष्टि जीव उन रागादिभावों के कर्त्ता नहीं बनते, सहज ज्ञातादृष्टाभाव से परिणमित होते हैं। इसप्रकार मिध्यादृष्टि जीव तो रागादिभावों के कर्त्ता-धर्त्ता होते हैं और सम्यग्दृष्टि जीव सहज ज्ञाता-दृष्टा ही रहते हैं । यही कारण है कि मिध्यादृष्टियों को अनंत संसार के कारणभूत मिथ्यात्वादि कर्मों का बंध होता है और सम्यग्दृष्टियों को उन कर्मों का बंध नहीं होता ।
अब आगामी कलश में आचार्यदेव आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जब वस्तुस्थिति इतनी स्पष्ट है; फिर भी न जाने यह मोह क्यों नाचता है? ( शार्दूलविक्रीडित )
कर्ता कर्मणि नास्ति नास्ति नियतं कर्मापि तत्कर्तरि । द्वंद्वं विप्रतिषिध्यते यदि तदा का कर्त्तृकर्मस्थितिः । ज्ञाता ज्ञातरि कर्म कर्मणि सदा व्यक्तेति वस्तुस्थिति - नेपथ्ये बत नानटीति रभसा मोहस्तथात्येष किम् ॥ ९८ ॥
( हरिगीत )
कर्म में कर्ता नहीं अर कर्म कर्ता में नहीं । इसलिए कर्ताकर्म की थिति भी कभी बनती नहीं ॥ कर्म में है कर्म ज्ञाता में रहा ज्ञाता सदा । साफ है यह बात फिर भी मोह है क्यों नाचता ? ॥ ९८ ॥
निश्चयनय से न तो कर्त्ता कर्म में है और न कर्म कर्त्ता में ही है। यदि इसप्रकार परस्पर दोनों का निषेध किया जाय तो फिर कर्त्ताकर्म की क्या स्थिति होगी ? अर्थात् जीव और पुद्गल के कर्त्ताकर्मपना कदापि नहीं हो सकेगा।
१. प्रवचनरत्नाकर भाग-४, पृष्ठ ३९१-३९२