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समयसार अनुशीलन
उक्त छन्द में शूद्र के जुड़वां बेटों के उदाहरण के माध्यम से पुण्य और पाप की एकता को समझाया गया है। - एक शूद्र महिला के पेट से दो बालक एक साथ (जुड़वां) पैदा हुए। उसने अपने एक बालक को ब्राह्मणी को दे दिया। ब्राह्मणी ने उसे अपने पुत्र के समान ही पाला-पोसा। ब्राह्मणी के यहाँ पलने वाले बालक को यह पता ही न था कि वह शूद्र का बेटा है। वह तो स्वयं को ब्राह्मणपुत्र मानकर ब्राह्मण जैसा पवित्र आचरण पालता था, शराब को हाथ भी नहीं लगाता था। ..
दूसरा बालक शूद्रा के यहाँ ही बड़ा हुआ। चूँकि शूद्रों के यहां शराब सहजभाव से पी जाती है। इसकारण वह प्रतिदिन शराब पीता था।
आचार्यदेव कहते हैं कि यद्यपि वे दोनों सगे जुड़वां भाई हैं; तथापि जातिभेद के भ्रम से उनके आचरण में यह भेद दिखाई देता है।
इसीप्रकार ये पुण्य-पाप भाव भी एक ही जाति के हैं, समे जुड़वां भाई ही हैं, कर्म के ही भेद हैं, रागभाव के ही भेद हैं; तथापि अज्ञानी भ्रम से पुण्य को भला और पाप को बुरा समझते हैं। उनके इस भ्रम के निवारण के लिए ही यह पुण्य-पाप अधिकार लिखा जा रहा है।
पाण्डे राजमलजी कलश टीका में इस उदाहरण का भावार्थ स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि इसीप्रकार कोई जीव शुभोपयोगी होता हुआ, यतिक्रिया में मग्न होता हुआ, शुद्धोपयोग को नहीं जानता और 'हम तो मुनीश्वर हैं, हमें तो विषय-कषाय निषिद्ध हैं' - ऐसा मानकर विषय-कषाय सामग्री को छोड़कर अपने को धन्य मानता है, मोक्षमार्गी मानता है; किन्तु वह मिथ्यादृष्टि ही है और कर्मबन्ध को करता है। कोई अशुभोपयोगी है, गृहस्थक्रिया में रत है; 'हम तो गृहस्थ हैं, हमें तो विषय-कषाय सेवन योग्य हैं' - ऐसा जानकर विषयकषाय सेवन करता है, वह भी मिथ्यादृष्टि है, कर्मबन्ध को करता है; क्योंकि कर्मजनित पर्याय मात्र को आपरूप जानता है, जीव के शुद्धस्वरूप का अनुभव नहीं है।
तात्पर्य यह है कि शुद्धोपयोग और आत्मानुभव से रहित मुनिजन . मुनित्वाभिमान से शुभाचरण पालते हैं और आत्मानुभूति रहित गृहस्थ गृहस्थ