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समयसार अनुशीलन
कलश टीका के उक्त कथन में यह स्पष्ट किया गया है कि दया, दान, व्रत, तप, शील, संयम आदि शुभक्रिया व तत्संबंधी शुभभाव और उनके कारण बंधने वाले पुण्य कर्म भले हैं, जीव को सुखकारी हैं - यह मान्यता मिथ्यादृष्टियों की है। सम्यग्ज्ञान होने पर यह मान्यता समाप्त हो जाती है।
इसी बात को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"चाहे तीर्थंकर नामक कर्मप्रकृति को बांधने वाला शुभभाव हो या नरकगति कर्म प्रकृति को बाँधनेवाला अशुभ भाव हो - दोनों ही प्रकार के भाव बन्धरूप हैं; अतः दुखरूप ही हैं - ऐसा जानता हुआ सम्यग्ज्ञानी सभी शुभाशुभभावों को एक कर्मरूप ही मानता है, उनमें उसे द्वैत भासित नहीं होता। ___भाई! तू पाप-पुण्य में हेयोपादेयपना मानकर अर्थात् पुण्य को भला व पाप को बुरा मानकर दु:ख के पहाड़ के तले दब गया है। प्रभु ! पुण्यपाप के दोनों ही भाव स्वयं दुःखरूप हैं तथा दु:ख के कारण हैं , आकुलतामय हैं; क्योंकि दोनों ही भाव स्वभाव से विरुद्धभाव हैं। ऐसे स्वभावविरुद्धभावों में जो न भेद देखकर एक कर्मरूप ही मानता है, उसे पर की अपेक्षा बिना स्वतः सम्यग्ज्ञानरूप चन्द्रमा उदित होता है।
देखो, पुण्य-पाप के दोनों ही भाव अशान्त हैं। देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा का राग अशान्त है, आकुलतामय है। लोगों को यह बात कड़क लगती है; परन्तु इससे क्या हो? पुण्य-पाप से रहित शुद्धज्ञानघन-स्वरूप भगवान आत्मा को निर्मल चैतन्य की परिणति द्वारा ग्रहण करके उस एक का ही अनुभव करना धर्म है, वही वीतरागी शान्ति है।" . इसप्रकार यहाँ पुण्य और पाप में एकत्व स्थापित करने वाले ज्ञानरूपी चन्द्रमा का स्मरण किया गया है, उसे नमस्कार किया गया है।
प्रश्न - यहाँ जिस ज्ञानरूपी चन्द्रमा को नमस्कार किया गया है, उस ज्ञान को केवलज्ञानरूप में लेना या सम्यग्ज्ञानरूप में ?
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ २ २. वही, पृष्ठ ४ ३. वही, पृष्ठ ७