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पुण्यपापाधिकार को कर्तव्य समझकर अशुभ आचरण में रत हैं; परन्तु दोनों का आचरण पर्याय (पद) के लक्ष्य से होने से, आत्मा के लक्ष्य से न होने से मात्र बंध का ही कारण है, मुक्ति का कारण नहीं।
उक्त कथन का भाव स्पष्ट करते हुये स्वामीजी कहते हैं -
"देखो, कोई एक व्यक्ति तो गृहस्थाश्रम में स्त्री, कुटुम्ब परिवार के साथ रहता हुआ विषय-कषाय का सेवन करता हो और दूसरे ने राजपाट त्यागकर नग्न दिगम्बर दीक्षा धारण की हो, तो इसप्रकार बाहर से दोनों की प्रवृत्ति स्पष्टतया भिन्न-भिन्न भासित होने से अज्ञानी को ऐसा भ्रम होता है कि अवश्य ही इन दोनों के अंतरंग में अन्तर होना चाहिए। वह एक को पापी और दूसरे को धर्मात्मा माने बिना नहीं रहेगा।
बापू! जबतक अन्तर्दृष्टि नहीं हुई, दृष्टि में चैतन्य का निधान नहीं आया, आनन्द का नाथ सच्चिदानन्दस्वरूप सर्वज्ञस्वभावी प्रभु दृष्टि में नहीं आया; तबतक वस्तुतः कुछ भी अन्तर नहीं पड़ा, शुभाशुभ दोनों ही भाव मात्र बंध के ही कारणरूप हैं। यद्यपि भले-बुरे दिखाई देते हैं; परन्तु यह तो कोरा भ्रम है। शुभाशुभ प्रवृत्ति के भेद से वे अच्छे या बुरे लगते हैं; परन्तु वास्तव में दोनों ही . बंधरूप हैं, दोनों ही संसार हैं, उनमें एक भी मुक्ति का कारण नहीं है।"
उक्त छन्द का भावानुवाद नाटक समयसार में पंडित बनारसीदासजी ने इसप्रकार किया है -
( सवैया इकतीसा ) जैसे काहू चंडाली जुगल पुत्र जर्ने तिनि,
एक दीयौ बांभनक एक घर राख्यौ है। बांभन कहायौ तिनि मद्य मांस त्याग कीनी,
चंडाल कहायौ तिनि मद्य मांस चाख्यौ है॥ .... तैसे एक वेदनी करम के जुगल पुत्र,
एक पाप एक पुन्न नाम भिन्न भाख्या है। दुई मांहि दौर धूप दोऊ कर्मबंधलप,
___ यात ग्यानवंत नहि कोउ अभिलाख्यौ है ॥
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ १३ ...
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