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पुण्यपापाधिकार
उत्तर - इस सन्दर्भ में कलश ४६ की व्याख्या में विस्तार से प्रकाश डाला गया है, तदनुसार ही यहाँ भी समझना चाहिए। जिन बातों पर वहाँ विचार किया है, वे सब यहाँ भी घटित हो सकती हैं। अतः अच्छा है कि आप उस प्रकरण को एकबार फिर गहराई से देख लें।
मंगलाचरण के उक्त छन्द में यह स्पष्ट किया गया है कि अज्ञान के कारण कर्म में जो शुभ और अशुभ के भेद किये जाते रहे हैं, वे वास्तविक नहीं हैं; इसकारण इन दोनों भेदों में एकता स्थापित करती हुई सम्यग्ज्ञानज्योति प्रगट हुई है। अब आगामी कलश में उसी बात को उदाहरण द्वारा स्पष्ट कर रहे हैं।
( मन्दाक्रान्ता ) एको दूरात्त्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमाना - दन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव । द्वावप्येतौ युगपदुदरान्निर्गतौ शूद्रिकायाः शूद्रौ साक्षादपि च चरतो जातिभेदभ्रमेण ॥१०१॥
( रोला ) दोनों जन्मे एक साथ शूद्रा के घर में । एक पला बामन के घर दूजा निज घर में ॥ एक छुए न मद्य ब्राह्मणत्वाभिमान से । दूजा डूबा रहे उसी में शूद्रभाव से ॥ जातिभेद के भ्रम से ही यह अन्तर आया । इस कारण अज्ञानी ने पहिचान न पाया ॥ पुण्य-पाप भी कर्म जाति के जुड़वां भाई।
दोनों ही हैं हेय मुक्ति मारग में भाई ॥१०१॥ एक तो ब्राह्मणत्व के अभिमान से दूर से ही मदिरा का त्याग करता है, उसे छूता तक नहीं और दूसरा 'मैं स्वयं शूद्र हूँ' - ऐसा मानकर नित्य मदिरा से स्नान करता है, उसी में डूबा रहता है, उसे पवित्र मानता है। यद्यपि वे दोनों ही शूद्रा के पेट से एक साथ ही उत्पन्न हुए हैं, इसलिए दोनों ही साक्षात् शूद्र हैं; तथापि वे जातिभेद के भ्रम से ऐसा आचरण करते हैं।