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समयसार अनुशीलन
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जीवाजीवाधिकार और कर्ताकर्माधिकार में पात्र दो-दो थे और उन्होंने मिलकर एक रूप धारण किया था; पर यहाँ उससे विपरीत पात्र (अभिनेता) एक कर्म है और उसने पुण्य और पाप - ये रूप धारण कर रखे हैं, वह यहाँ डबलरोल में है।
इस अधिकार के मंगलाचरण के रूप में जो छन्द आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मख्याति में लिखा है, उसकी उत्थानिका लिखते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं -
"जिसप्रकार नृत्यमंच पर एक ही पुरुष अपने दो रूप दिखाकर नाच रहा हो तो उसे यथार्थ ज्ञाता पहिचान लेता है और उसे एक ही जान लेता है; उसीप्रकार यहाँ यद्यपि कर्म एक ही है, तथापि वह पुण्य-पाप के भेद से दो प्रकार के रूप धारण करके नाचता है, उसे सम्यग्दृष्टि का यथार्थ ज्ञान एकरूप जान लेता है। उस ज्ञान की महिमा का काव्य इस अधिकार के आरंभ में टीकाकार आचार्य कहते हैं।"
(द्रुतविलम्बित ) तदथ कर्म शुभाशुभभेदतो द्वितयतां गतमैक्यमुपानयन् । ग्लपितनिर्भरमोहरजा अयं स्वयमुदेत्यवबोधसुधाप्लवः ॥१०॥
(हरिगीत ) शुभ अर अशुभ के भेद से जो दोपने को प्राप्त हो । वह कर्म भी जिसके उदय से एकता को प्राप्त हो । जब मोहरज का नाश कर सम्यक् सहित वह स्वयं ही।
जग में उदय को प्राप्त हो वह सुधानिर्झर ज्ञान ही ॥१०॥ अब शुभ और अशुभ के भेद से दोपने को प्राप्त उस कर्म को एकरूप करते हुए जिसने मोहरज को अत्यन्त ही दूर कर दिया है; ऐसा यह ज्ञानरूपी सुधाकर स्वयं ही उदय को प्राप्त होता है।
यह पुण्यपापाधिकार के मंगलाचरण का कलश है। इसमें उस सम्यग्ज्ञानज्योति को, ज्ञानसुधाकर को स्मरण किया गया है, जिसने पुण्य-पाप संबंधी अज्ञान का नाश किया है। अज्ञान के कारण पुण्य को भला और पाप को बुरा जाना जाता था, पर इस ज्ञानज्योति के उदय से, इस ज्ञानसुधाकर के