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समयसार अनुशीलन
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आगम के आधार और युक्तियों के प्रबल प्रहार से यह बात उसकी बुद्धि को स्वीकृत हो जाने पर भी, उसका हृदय इस बात को स्वीकार करने को तैयार नहीं होता। इसकारण वह किसी न किसी रूप में उनसे चिपटा रहना चाहता है। अतः कहता है कि न सही मैं इनका कर्ता-धर्ता, पर आप तो यह बताइये न कि यह काम तो अच्छा है न? ___ जब आप मन्दिर या धर्मशाला की प्रशंसा करते हैं तो वह मन ही मन सन्तुष्ट होता है और कहने लगता है आपके कहे अनुसार मैं न सही इनका कर्ताधर्ता; पर कार्य तो अच्छा ही हुआ है न? इसमें कोई कमी तो नहीं रही मेरी। इसप्रकार प्रकारान्तर से वह स्वयं को इनका कर्ता-धर्ता मानता रहता है और अच्छे कार्य के बहाने वह अपने परकर्तृत्व को ही पुष्ट करता रहता है। ___ इसीप्रकार अनादिकालीन मिथ्या मान्यता के जोर से अज्ञानी जीव आत्मा
को बंधन में डालने वाले कर्मों में भी शुभ और अशुभ का भेद करके शुभ को ‘उपादेय मान लेता है, करने योग्य मान लेता है। इसप्रकार शुभ कार्य के बहाने पर का और रागादि का कर्ता-भोक्ता स्वयं को मानता रहता है। : कहता है कि मैं न सही परपदार्थों का कर्ता-भोक्ता, न सही रागादि का कर्ता-भोक्ता; परन्तु पुण्यकार्य और शुभभाव हैं तो अच्छे ही, भले ही न?
इसप्रकार यह अच्छे और भले के बहाने उनमें अपनापन स्थापित करता है तथा न सही मैं इनका कर्ता, पर निमित्त तो मैं हूँ ही; इसप्रकार प्रकारान्तर से उनमें कर्त्तापन भी स्थापित कर लेता है। ___ अज्ञानी जीवों की इसी मान्यता के निराकरण के लिए पुण्य और पाप की समानता बताने वाले इस पुण्यपापाधिकार का जन्म हुआ है। इसप्रकार यह अधिकार भी जीवजीवाधिकार और कर्ताकर्माधिकार का पूरक अधिकार ही है; क्योंकि इसमें भी पुण्य-पापकर्मों और पुण्य-पापभावों से आत्मा को भिन्न बताकर उनके कर्तृत्व-भोक्तृत्व का निषेध करना ही इष्ट है। इसकारण यह एक प्रकार से कर्ताकर्म अधिकार का पूरक ही है, परिशिष्ट ही है।
इस अधिकार में 'मुक्ति के मार्ग में पुण्यभाव भी पापभाव के समान हेय ही है' - यह बताया गया है; क्योंकि पुण्यभाव और पापभाव हैं तो आखिर