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समयसार अनुशीलन
इसप्रकार इस छन्द में कर्त्ताकर्म अधिकार की सम्पूर्ण विषयवस्तु को समेटकर अति संक्षेप में प्रभावक ढंग से प्रस्तुत कर दिया गया है। इसप्रकार कर्त्तृत्व और भोक्तृत्व संबंधी अज्ञान को मेटता हुआ, कर्त्ताकर्म की प्रवृत्ति का अभाव करता हुआ, सम्यग्ज्ञानज्योति को प्रज्वलित करता हुआ यह कर्त्ताकर्म- अधिकार समाप्त होता है।
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अनादिकाल से ही इस आत्मा ने अज्ञानवश इन देहादि संयोगी पदार्थों में एकत्व और ममत्व स्थापित कर रखा है, इनमें ही सुख-दुःख की कल्पना कर रखी है। इस एकत्व, ममत्व और अज्ञान के कारण इन शरीरादि संयोगी पदार्थों के प्रति इसे अनन्त अनुराग बना रहता है। उसी अनुरागवश यह निरन्तर इन्हीं की साज-सँभाल में लगा रहता है।
यद्यपि यह सत्य है कि इसके सँभालने के विकल्पों से देहादि संयोगों के परिणमन में कोई अन्तर नहीं पड़ता है, तथापि यह उनकी सँभाल के विकल्पों में स्वयं उलझा ही रहता है, उनके सहज ही अनुकूल परिणमन में प्रसन्न एवं प्रतिकूल परिणमेन में खेदखिन्न तो हुआ ही करता है।
समय आने पर जब यह आत्मा जिनागम के अभ्यास एवं सद्गुरुओं के सत्समागम से उपलब्ध तत्त्वज्ञान को तर्क की कसौटी पर कसकर देखता है तो बुद्धि के स्तर पर यह बात समझ में भली-भाँति आने लगती है कि ये देहादि संयोगी पदार्थ अनित्य हैं, अशरण हैं, असार हैं, अत्यन्त अशुचि हैं, मुझसे अत्यन्त भिन्न हैं, सुख-दु:ख के साथी नहीं हैं - अपने सुख-दुःख स्वयं मुझे अकेले ही भोगने पड़ते हैं।
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मैं तो इन शरीरादि संयोगों और इनके निमित्त से होनेवाले संयोगी भावों तथा निज निर्मल पर्यायों एवं गुणभेद से भी भिन्न स्वयं भगवान आत्मा हूँ, अनन्त गुणों का धाम हूँ, अनन्तानन्त शक्तियों का संग्रहालय हूँ, ज्ञान का घनपिण्ड एवं आनन्द का कन्द परमप्रभु परमेश्वर हूँ ।
इस विकल्पात्मक सच्ची समझ की अविरल चिन्तनधारा के प्रबल प्रवाह से देहादि संयोगों के प्रति विद्यमान एकत्व, ममत्व एवं अनुराग की पकड़ कुछ ढीली पड़ने लगती है; काल पक जाने पर अन्त में एकसमय ऐसा आता है कि जब यह आत्मा इस चिन्तन-धारा को भी पारकर इन देहादि संयोगों से भिन्न निज भगवान आत्मा का अनुभव करने लगता है, तब अनादिकालीन मिथ्यात्वग्रन्थि को भेदकर सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से सम्पन्न हो जाता है।
बारह भावना : एक अनुशीलन, पृष्ठ ९२