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. गाथा १४४
है . तब कर्म कर्म नहीं कर्ता कर्ता न रहा,
ज्ञान ज्ञानरूप हुआ आनन्द अपार से । और पुद्गलमयी कर्म कर्मरूप हुआ,.,.
ज्ञानी पार हुए भवसागर अपार से ॥ ९९॥ अचल, व्यक्त और चित्शक्तियों के समूह के भार से अत्यन्त गंभीर यह ज्ञानज्योति अंतरंग में उग्रता से इसप्रकार जाज्वल्यमान हुई कि जो आत्मा अज्ञान अवस्था में कर्ता होता था, वह अब कर्त्ता नहीं होता और अज्ञान के निमित्त से जो कार्माणवर्गणारूप पुद्गल कर्मरूप होता था, अब वह कर्मरूप नहीं होता। इसप्रकार ज्ञान ज्ञानरूप ही रहता है तथा पुद्गल पुद्गलद्रव्य ही रहता है।
. 'अचल, व्यक्त और चैतन्यशक्तियों के भार से अत्यन्त गंभीर अनन्तगुणात्मक चिन्मात्रज्योति जाज्वल्यमान हुई' - ऐसा कहकर यहाँ चिन्मात्रज्योति में द्रव्यगुण-पर्याय - तीनों को शामिल कर लिया गया है।
इसप्रकार यहाँ द्रव्य-गुण-पर्यायमय ज्ञानज्योति का स्मरण किया गया है और यह कहा गया है कि जब यह ज्ञानज्योति उच्चता से, उग्रता से जाज्वल्यमान होती है, तब ज्ञान ज्ञानरूप हो जाता है, वह कर्ता नहीं बनता और पुद्गल पुद्गल रूप रह जाता है, वह कर्म नहीं बनता। इसप्रकार कर्ता-कर्म की प्रवृत्ति का अभाव हो जाता है।
इस कलश के भाव को भावार्थ में पंडित जयचन्दजी छाबड़ा इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"जब आत्मा ज्ञानी होता है, तब ज्ञान तो ज्ञानरूप ही परिणमित होता है, पुद्गलकर्म का कर्ता नहीं होता और पुद्गल पुद्गल ही रहता है, कर्मरूप परिणमित नहीं होता। इसप्रकार यथार्थ ज्ञान होने पर दोनों द्रव्यों के परिणमन में निमित्त-नैमित्तिक भाव नहीं होता। ऐसा ज्ञान सम्यक्दृष्टि के होता है।"
इसप्रकार इस कलश में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि सम्यग्ज्ञानज्योति के उदय होने पर आत्मानुभूति होने पर, सम्यग्दर्शन हो जाने पर; परपदार्थ और