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गाथा १४४
इसप्रकार ज्ञाता सदा ज्ञाता में ही है और कर्म सदा कर्म में ही है। यद्यपि वस्तु की ऐसी स्थिति एकदम प्रगट है; तथापि अरे! यह मोह नेपथ्य में अत्यन्त वेगपूर्वक क्यों नाच रहा है ? - यह आश्चर्य और खेद की बात है।
पाण्डे राजमलजी ने कलश टीका में यहाँ 'कर्ता' शब्द का अर्थ रागादि अशुद्धपरिणाम परिणत अज्ञानी जीव लिया है और कर्म का अर्थ ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणत पुद्गलपिण्ड लिया है। इसप्रकार उन्होंने 'कर्ता कर्म में नहीं है और कर्म कर्त्ता में नहीं है' का अर्थ यह किया हैं कि इन दोनों में एकपना नहीं है। इसी के आधार पर वे यह निष्कर्ष निकालते हैं कि जब अज्ञानी जीव
और ज्ञानावरणादि रूप पुद्गल कर्म - दोनों भिन्न-भिन्न ही हैं तो फिर उनमें परस्पर कर्ताकर्मभाव कैसे हो सकता है? इसलिए यह वस्तुस्थिति अत्यन्त स्पष्ट ही है कि ज्ञाता ज्ञाता में है और ज्ञानावरणादि कर्म कर्म में है, फिर न जाने अज्ञानी जीवों की मान्यता में यह मोह क्यों नाचता है ? यह बड़े अचम्भे की बात है, इसपर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए।
कविवर पंडित बनारसीदासजी नाटक समयसार में इस छन्द का भावानुवाद इसप्रकार करते हैं - .
(छप्पय ) करम पिंड अरु रागभाव मिलि एक हाँहि नहि। दोऊ भिन्नसरूप बसहिं दोऊ न जीव महि ॥ करमपिंड पुग्गल विभाव रागादि मूढ़ भ्रम ।
अलख एक पुग्गल अनंत किमि धरहि प्रकृति सम ॥ निज निज विलास जुत जगत महि जथा सहज परिणमहि तिम । करतार जीव जड़ करमको मोह विकल जन कहहि इम ॥
ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों का पिण्ड और रागादिभावकर्म - ये दो मिलकर एक नहीं होते, भिन्न-भिन्न ही हैं और भिन्न-भिन्न ही रहते हैं। ये दोनों ही जीव में नहीं हैं, जीव से भिन्न हैं। ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म पुद्गलपिंड हैं और रागादिभावकर्म जीव के विभाव हैं। आत्मा एक है और पुद्गल अनंत हैं - दोनों की प्रकृति एक-सी कैसे हो सकती है ?