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गाथा १४४
के कारण नहीं हुआ है, बल्कि राग के काल में ही स्व-पर को जानने की ज्ञानक्रिया स्वतः अपने निजरस से ही उत्पन्न होती है। ज्ञान में राग निमित्त है - यह तो कहा; परन्तु राग में ज्ञान का निमित्तपना नहीं कहा। .... ___ ज्ञाता के ज्ञानरूप परिणमन के समय रागादिभाव भी होते हैं। चौथे गुणस्थान में अप्रत्याख्यान कषायजन्य राग होता है, पाँचवें गुणस्थान में भी प्रत्याख्यान कषायजन्य एवं छठवें गुणस्थान में संज्वलन कषायजन्य राग होता है; परन्तु ज्ञानी के ज्ञानरूप परिणमन में वह कषायजन्य राग जब ज्ञेयरूप से ज्ञात होता है, तब उस राग को निमित्त कहा जाता है। ज्ञानी राग में तन्मय नहीं होता और राग ज्ञान में तन्मय नहीं है। ज्ञानी राग का कर्ता नहीं है और राग ज्ञान की स्व-परप्रकाशक पर्याय का कर्ता नहीं है। ऐसा ही वस्तु का सहज स्वरूप है। - सर्वविशुद्धज्ञान-अधिकार में भी आया है कि केवलज्ञान पर्याय में लोकालोक ज्ञेयरूप निमित्त है और लोकालोक को ज्ञेय बनने में केवलज्ञान ज्ञातारूप निमित्त है। यहाँ निमित्त का क्या अर्थ है? क्या लोकालोक के अस्तित्व से लोकालोक का ज्ञान हुआ है?
नहीं, ऐसा नहीं होता। लोकालोक का ज्ञान अपनी (ज्ञाता की) ज्ञान पर्याय के स्वकाल में अपनी उपादान की योग्यता से स्वतः होता है और उसमें लोकालोक केवल निमित्त होता है।
तथा 'लोकालोक को केवलज्ञान निमित्त है' - ऐसा जो कहा, उसका भी यही अभिप्राय है कि केवलज्ञान में लोकालोक झलका; इसलिए लोकालोक का अस्तित्व नहीं है; क्योंकि लोकालोक तो अनादि से है और केवलज्ञान तो नया उत्पन्न हुआ है; अत: केवलज्ञान लोकालोक के अस्तित्व का निमित्त कैसे हो सकता है ? भाई ! यहाँ निमित्त का अर्थ यह है कि केवलज्ञान व लोकालोक परस्पर एक-दूसरे का कुछ भी किये बिना मात्र ज्ञाता-ज्ञेय रूप से हैं।
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ ३८७-३८८