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समयसार अनुशीलन
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धर्मी को जब जो राग की क्रिया होती है, उसकाल में उसे उसका ज्ञान भी होता है; क्योंकि ज्ञान का ऐसा ही स्वभाव है कि जैसा वहाँ पर्याय में रागद्वेष, विषय-वासना आदि भाव उत्पन्न होता है, उसका ज्ञान भी यहाँ स्वतः उत्पन्न होता है। राग के कारण राग का ज्ञान हुआ हो - ऐसा नहीं है, बल्कि ज्ञान के स्व-परप्रकाशक स्वभाव के कारण ही ज्ञानी को स्व-परप्रकाशक परिणति प्रगट होती है; इसीलिए कहा है कि ज्ञानी की क्रिया में अशुद्धता की क्रिया भासित नहीं होती, अर्थात् ज्ञप्ति क्रिया में करोति क्रिया नहीं होती। _ 'करोति' क्रिया अर्थात् आत्मा का अशुद्धपना, मिथ्यात्व रागादिरूप क्रिया
और 'ज्ञप्ति' क्रिया अर्थात् ज्ञानी की ज्ञाताभाव से रहनेरूप क्रिया - दोनों क्रियाएँ भिन्न-भिन्न हैं। अज्ञानी के रागादिरूप अशुद्ध क्रिया है, उसके केवल ज्ञाता-दृष्टा रहनेरूप ज्ञान की क्रिया नहीं है और ज्ञानी के ज्ञातारूप ज्ञान क्रिया है, रागादिरूप अशुद्ध क्रिया नहीं है। इससे यह सिद्ध हुआ कि जो ज्ञाता है, वह कर्ता नहीं है; जो कर्ता है, वह ज्ञाता नहीं है। सम्यग्दृष्टि धर्मीजीव अपने शाश्वत ध्रुव ज्ञातास्वभाव का ज्ञायक है। शुद्ध चैतन्य की दृष्टि में वह वर्तमान अशुद्ध कृत्रिम रागरूप अशुद्ध क्रिया का स्वामी नहीं है, इसकारण वे दोनों क्रियायें एक साथ नहीं होती; दोनों क्रियाएं भिन्न-भिन्न हैं।
चतुर्थ गुणस्थान में ज्ञानी के अशुद्ध रागादि क्रिया होते हुए भी ज्ञानी उसका स्वामी नहीं है; अतः वह केवल ज्ञाता ही है,कर्ता नहीं।११०वें कलश में आया है कि ज्ञानधारा ज्ञानभाव से प्रवाहित होती है और रागधारा (कर्मधारा) रागरूप प्रवाहित होती है। दोनों साथ हैं ; परन्तु दोनों एकमेक नहीं हैं - ऐसा वहाँ सिद्ध किया है। ज्ञानधारा धर्म है, संवर-निर्जरा का कारण है और रागधारा कर्मधारा है और वह बंध का कारण है। __ परन्तु यहाँ तो यह कह रहे हैं कि ज्ञानी के अकेली ज्ञानधारा है; क्योंकि राग होते हुए भी वह उसका कर्ता नहीं है। जिससमय रागादिभाव होता है, उसीसमय तत्संबंधी स्व-परप्रकाशक ज्ञान स्वयं से उत्पन्न हो जाता है। काल एक है; तथापि दोनों का भाव भिन्न-भिन्न है। राग का ज्ञान राग की उपस्थिति