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समयसार अनुशीलन
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इसीकारण उसे तत्संबंधी बंध भी नहीं होता। उसके जो अप्रत्याख्यानादि संबंधी रागादि विद्यमान हैं और तत्संबंधी जो बंध होता है, वे रागादिभाव व वह बंध अनंतसंसार का कारण न होने से यहां उन्हें बंध ही नहीं माना गया है। जहाँ चारित्रमोह संबंधी बंध की चर्चा होती है, वहां उन्हें भी बंध का कारण कहा जाता है और कर्त्तानय से आत्मा को उनका कर्ता भी कहा जाता है। वह ज्ञानीअज्ञानी दोनों पर ही समानरूप से घटित होता है।
इसकी चर्चा भावार्थ में पं. जयचंदजी छाबड़ा ने की है; जो इसप्रकार हैं -
"जब आत्मा इसप्रकार परिणमन करता है कि 'मैं परद्रव्य को करता हूँ' तब तो वह कर्त्ताभावरूप परिणमनक्रिया के करने से अर्थात् 'करोति' क्रिया के करने से कर्ता ही है और जब वह इसप्रकार परिणमन करता है कि 'मैं परद्रव्य को जानता हूँ' तब ज्ञाताभावरूप परिणमन करने से अर्थात् 'ज्ञप्ति' क्रिया के करने से ज्ञाता ही है।
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि अविरत-सम्यग्दृष्टि आदि को जबतक चारित्रमोह का उदय रहता है, तबतक वह कषायरूप परिणमन करता है; इसलिये वह उसका कर्ता कहलाता है या नहीं?
उसका समाधान - अविरत सम्यग्दृष्टि इत्यादि के श्रद्धा व ज्ञान में परद्रव्य के स्वामित्वरूप कर्तृत्व का अभिप्राय नहीं है। जो कषायरूप परिणमन है, वह उदय की बलवत्ता के कारण है; वह उसका ज्ञाता है; इसलिए उसके अज्ञान संबंधी कर्तृत्व नहीं है। निमित्त की बलवत्ता से होनेवाले परिणमन का फल किंचित् होता है, वह संसार का कारण नहीं है। जैसे वृक्ष की जड़ काट देने के बाद वह वृक्ष कुछ समय तक रहे अथवा न रहे - प्रतिक्षण उसका नाश ही होता जाता है, इसीप्रकार यहाँ भी समझना।" . ... उक्त संदर्भ में स्वामीजी ने बहुत विस्तार से स्पष्टीकरण किया, जो अत्यन्त उपयोगी है। उसका महत्त्वपूर्ण अंश इसप्रकार है -
"जो जीव राग के परिणामरूप क्रिया को करता है अर्थात् 'यह शुभराग की क्रिया मेरी है, मैं शुभराग की क्रिया करता हूँ' - ऐसा जो मानता है, उसे