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गाथा १४४
अपना ज्ञाता-दृष्टा स्वभाव भासित नहीं होता, अर्थात् वह ज्ञाता-दृष्टाभाव से रहनेरूप क्रिया को नहीं कर सकता, ज्ञाता-दृष्टा नहीं रह सकता।
देखो, यहाँ जड़ की क्रिया करने की बात नहीं है।आत्मा पुद्गल का कर्ता नहीं है - यह बात बाद में करेंगे। यहाँ तो अभी आत्मा और आत्मा की अशुद्धता के बीच की बात है। आचार्य कहते हैं कि जिसे ऐसा भासित होता है कि मैं राग की क्रिया करता हूँ, उसे अपनी जाननक्रिया भासित नहीं होती।
जगत के लौकिक जन दया-दान-व्रत आदि बाह्य क्रियायें करके उन्हें धर्म का साधन मानते हैं; परन्तु भाई ! यह मान्यता यथार्थ नहीं है। राग की क्रिया के कर्तृत्व में आत्मा का ज्ञाता-दृष्टा स्वभावरूप परिणमन नहीं होता। ज्ञानस्वरूपी भगवान आत्मा का संवेदन होकर जो जाननेरूप क्रिया होती है, उसे ज्ञान की क्रिया कहते हैं। ज्ञानरूप, श्रद्धानरूप, वीतरागी शान्तिरूप तथा आनन्दरूप से जो आत्मा का परिणमन होता है, वह ज्ञान की क्रिया है। ऐसी ज्ञान की क्रिया के काल में ज्ञानी को राग के कर्तृत्वरूप अज्ञान की क्रिया नहीं होती और होती नहीं है, इसलिए भासती नहीं है।
प्रश्न - तो क्या ज्ञानी को राग होता ही नहीं है ? ..
उत्तर - नहीं, भाई ! ऐसी बात नहीं है। ज्ञानी को राग तो होता है; परन्तु 'राग की क्रिया मेरी है' - ऐसा उसे भासित नहीं होता, अर्थात् उसे राग की क्रिया का स्वामित्व नहीं है, वह उस क्रिया को अपनी क्रिया नहीं मानता। यह चौथे गुणस्थान की बात है। पुरुषार्थ की हीनता के कारण अल्पराग की रचना होती है; परन्तु वह क्रिया मेरी, मैं उसका कर्ता हूँ' - ऐसा सम्यग्दृष्टि नहीं मानता है। ज्ञानी के ज्ञान की रचना होती है - उस ज्ञान की रचना में उसे राग की रचना भासित नहीं होती। तात्पर्य यह है कि धर्मी को राग तो होता है; परन्तु वह उस राग का स्वामी नहीं बनता। __ आत्मा में एक स्व-स्वामित्व नामक शक्ति है। ज्ञानी के द्रव्य, गुण एवं शुद्ध पर्याय 'स्व' हैं तथा ज्ञानी उनका स्वामी है, ज्ञानी अशुद्धता का स्वामी नहीं है।
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ ३८६-३८७