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गाथा १४४
भी तो सहजभाव से नीचे की ओर ही बह रहा है। जिसस्थान पर पानी अपने समूह से च्युत हुआ है, भले ही उसे उसी स्थान पर न मिलाया जा सके; परन्तु उसी जलधारा में आगे अवश्य मिलाया जा सकता है। ____ हरिद्वार में गंगानदी की एक जलधारा को नहर का रूप देकर गंगा से पृथक् किया गया और उसी जलधारा (नहर) को लगभग पांच सौ किलोमीटर अलग चलाकर कानपुर के आस-पास उसी गंगा नदी में ही मिला दिया गया। । अतः स्वामीजी ने जो जलसमूह का अर्थ नदी किया है; वह तर्कसंगत है एवं उनके लौकिक अनुभव को भी सिद्ध करता है। ___ अरे भाई! नदी का जो पानी अपनी मूलधारा से अलग हो जायगा, बिछुड़ जायगा; उसकी दुर्दशा ही होनेवाली है, उसका विनाश सुनिश्चित ही है। वह पानी अब पानी के रूप में नहीं रह पावेगा; या तो मिट्टी में मिलकर कीचड़ हो जावेगा या फिर किसी वृक्ष द्वारा सोख लिया जायगा। यदि वह जल अपनी सुरक्षा चाहता है तो अब उसे जैसे भी बने नदी की मूलधारा की ओर ही लौटना होगा; उसकी सुरक्षा का अन्य कोई उपाय नहीं है।
इसीप्रकार जिस आत्मा के श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र त्रिकालीध्रुव निज शुद्धात्मा से च्युत होकर परपदार्थों में समर्पित हैं; उनकी दुर्दशा सुनिश्चित ही है। ऐसे जीव ही चार गति और चौरासी लाख योनियों में भटक रहे हैं और तबतक भटकते रहेंगे, जबतक कि वे पर से परान्मुख होकर निज भगवान आत्मा के प्रति समर्पित नहीं होते। . .
तात्पर्य यह है कि जिस आत्मा के श्रद्धागुण ने अपने त्रिकालीध्रुव आत्मा में अपनापन न रखकर अपने आत्मा से भिन्न परपदार्थों और अपने ही आत्मा में उत्पन्न होनेवाले राग-द्वेषादिभावों में अपनापन रखा; तथा जिस आत्मा के ज्ञानगुण ने अपने आत्मा को निजरूप न जानकर परपदार्थों और रागादि को निजरूप जाना; इसीप्रकार जिस आत्मा के चारित्रगुण ने निज आत्मा में लीनता न करके, स्थिरता न रखकर; परपदार्थों और रागादिभावों में लीनता की, स्थिरता की; वह आत्मा चार गति और चौरासी लाख योनियों में भटक-भटक कर अनन्त दुःख उठाता है।