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गाथा १४४
यहाँ मोह-राग-द्वेषमय विकल्पों में एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व स्थापित करनेवाले अज्ञानी मिथ्यादृष्टि को सविकल्प कहा गया है। ऐसे सविकल्प अज्ञानी के कर्ताकर्म की प्रवृत्ति का नाश कभी नहीं होता। यही बताया गया है इस छन्द में।
कलशटीकाकार पाण्डे राजमलजी की दृष्टि में भी कर्मजनित रागादिभावों में अपनापन मानने वाला मिथ्यादृष्टि ही सविकल्प है और इसप्रकार के सविकल्प (मिथ्यादृष्टि) के कर्ताकर्मभाव कभी भी नष्ट नहीं होता। इस कलश का भाव स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं -
"कोई ऐसा मानेगा कि जीवद्रव्य सदा ही अकर्ता है, तो उसके प्रति ऐसा समाधान है कि जितने काल तक जीव का सम्यक्त्व गुण प्रगट नहीं होता, उतने काल तक जीव मिथ्यादृष्टि है। मिथ्यादृष्टि हो तो अशुद्ध परिणाम का कर्ता होता है। सो जब सम्यक्त्व गुण प्रगट होता है, तब अशुद्ध परिणाम मिटता है और तब अशुद्ध परिणाम का कर्ता नहीं होता है।"
कलशटीकाकार के उक्त कथन में यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि परद्रव्य और रागादिभावों में एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्व भावों को ही यहाँ अशुद्धभाव कहा गया है। ये अशुद्धभाव मिथ्यादृष्टि के हैं; अतः वह इनका कर्ता है और सम्यग्दृष्टि के ये भाव नहीं हैं; अतः वह इनका कर्ता नहीं है। ___ जब कर्तृत्वादि के भाव सम्यग्दृष्टि के हैं ही नहीं, तो वह उनका कर्ता किसप्रकार हो सकता है? तात्पर्य यह है कि मिथ्यादृष्टि के मिथ्यात्व संबंधी रागादि हैं और वह उनका कर्ता है और सम्यग्दृष्टि के वे मिथ्यात्व संबंधी रागादि हैं ही नहीं; अतः वह उनका कर्ता भी नहीं है।
सम्यग्दृष्टि के जो चारित्रमोह संबंधी रागादिभाव अभी विद्यमान हैं; उनकी बात यहाँ नहीं की जा रही है। यहाँ तो रागादिभावों में एकत्व, ममत्व, कर्तृत्व और भोक्तृत्वभावरूप रागादिभावों की बात है।
इसी स्पष्टीकरण को ध्यान में रखते हुए कविवर पंडित बनारसीदासजी नाटक समयसार में इस छन्द का भावानुवाद इसप्रकार करते हैं -