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गाथा १४४
परिणमने लगता है; किन्तु जब उसे बलपूर्वक विवेक के मार्ग में लगा दिया जाता है तो अन्तर्मुख होकर सहजभाव से स्वभाव में परिणमने लगता है, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप परिणमने लगता है। प्रश्न - दोनों अर्थों में कौनसा अर्थ सही है।
उत्तर - दोनों ही सही हैं; क्योंकि दोनों के भाव में कोई अन्तर है ही नहीं। अन्तर तो मात्र उदाहरण को घटित करने में है, उसके स्पष्टीकरण में है, निष्कर्ष में तो कोई अन्तर है ही नहीं। ..
इस कलश का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"यहाँ नदी के प्रवाह के दृष्टान्त द्वारा जीव की पर्यायजनित भूल और स्वभावगत विशेषता को समझाकर स्वभाव का लक्ष्य कराते हैं। जिसप्रकार नदी का अपार जलसमूह अपने वेग से अपनी धारा में बह रहा हो, उसमें से थोड़ासा पानी अपनी धारा को छोड़कर अन्य रास्ते से इधर-उधर बहकर गहन वन में कहीं दूर चला जावे। पश्चात् उसे कोई व्यक्ति ढालवाले मार्ग से उसी नदी की ओर मोड़ देवे, तो फिर वह पानी ढाल पाकर पानी के मूलसमूह की ओर प्रवाहित होता हुआ, पानी के मूलसमूह में मिल जाता है।
उसीप्रकार यह भगवान आत्मा अनादिकाल से अपने विज्ञानघनस्वभाव से च्युत हुआ था, भ्रष्ट होकर प्रचुर विकल्पजालरूपी वन में भटक गया था। अपनी त्रिकाली ध्रुवस्वभावी प्रवाहरूप वस्तु तो त्रिकाल अपने ज्ञान व आनन्द के रस से भरपूर ही पड़ी है; किन्तु केवल पर्याय में वह आत्मा उस परिपूर्ण स्वभाव से च्युत हो रहा है, अनादिकाल से भ्रष्ट हो रहा है; अब वह अपने उग्र पुरुषार्थ से विवेकरूपी ढालवाले मार्ग द्वारा अपने यथार्थ स्वरूप विज्ञानघनस्वभाव की ओर आया है। ___ कलश टीका में पण्डित राजमलजी ने 'विवेक निम्नगमनात्' पद का अर्थ यह किया है कि - शुद्धस्वरूप का अनुभव यही हुआ नीचा ढालवाला मार्ग, उस कारण से जीवद्रव्य का जैसा स्वरूप था, वैसा प्रगट हुआ।
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ ३७७